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काशी के दुर्गाकुंड मंदिर में माँ कुष्मांडा की झलक पाने के लिए भक्तों का उमड़ा जन सैलाब

काशी के दुर्गाकुंड मंदिर में माँ कुष्मांडा की झलक पाने के लिए भक्तों का उमड़ा जन सैलाब 

भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी विश्व की तीन लोक से न्यारी काशी में मां आद्य शक्ति अदृश्य रूप में दुर्गाकुंड मंदिर में विराजमान हैं।  शारदीय नवरात्रि के आज चौथे दिन नवदुर्गा के मां कूष्मांडा देवी की पूजा सुबह से ही घरों में शुरू हो गई है। वहीं, वाराणसी के दुर्गाकुंड स्थित विश्व प्रसिद्ध प्राचीन दुर्गामंदिर की मुख्य देवी कूष्मांडा के दर्शन के लिए भक्तों की भारी भीड़ उमड़ी है। आज के दिन यहां पर दर्शन का खास महत्व है। पूरे देश से लोग यहां मां कूष्मांडा को पूजने और अपने पापों का प्रायश्चित करने आते हैं। भक्तों का रेला सुबह के 4 बजे से ही सड़कों से लेकर मंदिर के पट तक लग चुका है। 

मां का जयकारा करते हुए बारी-बारी से सभी श्रद्धालु नारियल-चुनरी चढ़ाकर अपने ईष्ट देवी को आज पूज रहे हैं। मां के दर्शन के बाद भक्त काफी भाव विभाेर और प्रसन्नचित दिखे। देश के कोने-कोने से आए अभी तक करीब 20 हजार से ज्यादा भक्तों ने माता के दरबार में मत्थे टेके। आज के दिन मां को मालपुआ का प्रसाद चढ़ाने का भी रिवाज है। वहीं, कन्याओं को रंग-बिरंगी चुनरी और कपड़े भेट करने से धन-संपदा में वृद्धि होती है।

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मंदिर का इतिहास

मान्यता है कि इस मंदिर के तेज से एक ही झटके में भक्तों के जन्म-जन्मांतर के पाप कट जाते हैं। धर्मशास्त्र कहता है कि शुंभ-निशुंभ का वध करने के बाद मां दुर्गा ने इसी जगह पर विश्राम किया था। वैसे यहां पर मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में रानी भवानी ने कराया था। कमंडल, धनुष, बाण, कमल, अमृत कलश, चक्र और गदा के साथ माला धारण करने वाली कूष्मांडा देवी को अष्टभुजा वाली भी कहते हैं। धर्माचार्यों का कहना है कि इनका निवास स्थान सूर्यमंडल के अंदर माना जाता है। जीवन में समस्या में हो तो मां कूष्मांडा की उपासना करना ही सबसे फलदायी होता है। वहीं, अद्भुत तेज और सिंह पर सवार मां कूष्मांडा के दर्शन करने से भक्तों का डर खत्म होता है। माता के दर्शन मात्र से ऊर्जा का संचार हो जाता है।

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भोर के तीन बजे मंगला आरती के बाद पट खुले। इसी के साथ दर्शन-पूजन के लिए भक्त बढ़ने लगे जो अनवरत जारी है।  मां की सड़कों पर जय जयकार गूंज रहे हैं। मंदिर के द्वार से लेकर त्रिदेव मंदिर के आगे तक पुरुषों की लंबी लाइन लगी है।  देवी के धाम में शहर के अलावा आसपास के इलाकों के भी लोग कतारबद्ध होकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।

काशी के दुर्गाकुंड मंदिर में माँ कुष्मांडा की झलक पाने के लिए भक्तों का उमड़ा जन सैलाब 

भीड़ उमड़ने की वजह से पुलिस ने दुर्गा मंदिर जाने वाले सभी रास्तों को बांस-बल्लियों से घेर दिया है। नवरात्र के चौथे दिन मां कूष्मांडा की पूजा-आराधना की जाती है। शारदीय नवरात्र की रौनक अब दिखने लगी है। देवी के दरबारों के अलावा घरों में कहीं दुर्गा शप्तसती के सस्वर पाठ हो रहे हैं तो कहीं मनौतियों की पूर्ति के लिए विशेष अनुष्ठान। कूष्मांडा देवी के दरबार में रविवार तो बड़ी संख्या में भक्तों का रेला पहुंचा है। बेला, गुलाब, अड़हुल के फूलों और हरी पत्तियों से मां के गर्भगृह को सजाया गया है। 
काशी के प्राचीनतम मंदिरों में से एक माता कूष्मांडा का यह सिद्ध मंदिर प्राचीनतम मंदिरों में से एक माना जाता है। मान्यता है कि यह मंदिर आदिकालीन है। वैसे तो हर समय दर्शनार्थियों का आना लगा रहता है लेकिन शारदीय नवरात्र के चौथे दिन यहां मां कुष्मांडा के दर्शन और पूजा के लिए भारी भीड़ उमड़ती है। काशी के पावन भूमि पर कई देवी मंदिरों का भी बड़ा महात्मय है। दुर्गाकुंड मंदिर काशी के पुरातन मंदिरों मे से एक है। इस मंदिर का उल्लेख 'काशी खंड' में भी मिलता है। यह मंदिर वाराणसी कैंट स्टेशन से करीब पांच किमी की दूरी पर है। 

लाल पत्थरों से बने इस भव्य मंदिर के एक तरफ दुर्गा कुंड है। इस मंदिर में माता दुर्गा यंत्र के रूप में विराजमान है। मंदिर के निकट ही बाबा भैरोनाथ, लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी, और माता काली की मूर्तियां अलग से मंदिरों में स्थापित हैं। इस मंदिर के अंदर एक विशाल हवन कुंड है, जहां रोज हवन होते हैं। कुछ लोग यहां तंत्र पूजा भी करते हैं।

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ये हैं मंदिर की मान्यताएं

मान्यता है कि  मंदिर में देवी का तेज इतना भीषण है कि मां के सामने खड़े होकर दर्शन करने मात्र से ही कई जन्मों के पाप जलकर भस्म हो जाते हैं। इस मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी  में रानी भवानी ने कराया था। यह मंदिर नागर शैली में निर्मित किया गया।

मान्यता है कि शुंभ-निशुंभ  का वध करने के बाद मां दुर्गा ने थककर इसी मंदिर में विश्राम किया था। पौराणिक मान्यता के मुताबिक जिन दिव्य स्थलों पर देवी मां साक्षात प्रकट हुईं वहां निर्मित मंदिरों में उनकी प्रतिमा स्थापित नहीं की गई है। ऐसे मंदिरों में चिह्न पूजा का ही विधान हैं। यहां प्रतिमा के स्थान पर देवी मां के मुखौटे और चरण पादुकाओं का पूजन होता है। साथ ही यहां यांत्रिक पूजा भी होती है। यही नहीं, काशी के दुर्गा मंदिर का स्थापत्य बीसा यंत्र पर आधारित है। बीसा यंत्र यानी बीस कोण की यांत्रिक संरचना जिसके ऊपर मंदिर की आधारशिला रखी गयी है।

 बता दे कि वाराणसी में इस बार 2 साल बाद दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन हो रहा है। शहर भर में 251 दुर्गा पंडाल सजाए गए हैं। वहीं, सप्तमी से यानि कि 13 अक्टूबर से मां के सभी पंडाल भक्तों के लिए खुल जाएंगे। वहीं नवमी यानि कि 15 अक्टूबर के बाद मां का विसर्जन हो जाएगा। कोरोना की वजह से सभी लोग दो साल बाद नवरात्रि को धूम धाम से मना रहे है।

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