आधुनिक चकाचौंध में पुराने रीति रिवाज हो रहे हैं फीके

Ayodhya News: आधुनिक चकाचौंध में पुरानेेे रीति रिवाज फीके पड़ रहे हैं। एक दौर था जब सावन के शुरू होते ही बारिश की फुहारों संग पेड़ों पर झूले व कजरी गीत सुनाई पड़नेेे लगते थे। जिसकी मिठास पूरे वातावरण में घुल जाया करती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है।
सावन बीतने को है, लेकिन न कहीं झूला और न ही कहीं कजरी के बोल ही सुनाई पड़ रहे हैं। परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं। पहले गांव की लड़कियां सावन का इंतजार करती थीं। सावन के आते ही बगीचों और घरों में झूलेे पड़ जाया करते थे। ननंद भौजाई की ठिठोली के साथ हर उम्र के लोग सावन के रंग में रंग जाते थे। कजरी गीत की स्वर लहरिया महीने भर तक सुनाई पड़ती थी।
कजरी गीत में "पिया मेंहदी मंगा द मोती झील से, जाई के साइकिल से ना" जैसे कजरी गीत काफी प्रचलित रहे हैं। कजरी गीत को नई नवेली दुल्हन गांव की लड़कियां गाकर हास्य परिहास के साथ मनोरंजन किया करती थी। यही नहीं खेतों में धान की रोपाई करते समय गांव की महिलाएं कजरी गीत गाकर सावन की खुशी मनाती थीं और माहौल खुशनुमा रहता था। लेकिन अब झूला और कजरी बीते जमाने की बात हो गई है।
ननंद भौजाई का रिश्ता मधुरता खो रहा है। ब्लॉक क्षेत्र के उमरनी पिपरी निवासी बुजुर्ग नींबू लाल कनौजिया एवं दोहरी निवासी 90 वर्षीय रामतेज वर्मा ने बताया कि पहले जैसी बात अब नहीं है। स्नेह प्रेम घर में ही नहीं आस पड़ोस में भी था।
टोला भर की लड़कियां एक जगह इकट्ठा होकर कजरी गायन करती थीं। लेकिन आज प्रेम का अभाव साफ दिखता है। समय के अभाव के चलते कजरी गीत तो दूर कई घरेलू परंपराएं दूर होती जा रही हैं। असकरन निवासी सहायक प्रोफेसर विनोद शुक्ला एवं मलेथू कनक निवासी मोहन दुबे बताते हैं कि पहले संयुक्त परिवार रहता था।
सब लोग एक जगह मिल बैठकर बातों बातों में ही हास परिहास शुरू कर देते थे। पर आज संयुक्त परिवार टूटता जा रहा है और एकांकी परिवार लोक परंपराओं को निभाने का समय ही नहीं दे पाता। झूला और कजरी के लिए अब गांवों में माहौल ही नहीं रहता है। प्राचीन भारतीय संस्कृति सेे जुड़ी पुरानी परंपराओं को सहेजने की जरूरत है। जो भारतीय सभ्यता संस्कृति और लोक परंपरा की प्राचीन धरोहर है।