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यहाँ देखिये पितृपक्ष की सम्पूर्ण जानकारी, कैसे करें अपने पितरों को खुश

यहाँ देखिये पितृपक्ष की सम्पूर्ण जानकारी, कैसे करें अपने पितरों को खुश

पितरों का महान् पर्व - महालय

प्रायः हमसभी जानते हैं की -

"पितरो वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवताः"

देवताओं की पूजा - आराधना सहसा भावपूर्वक होता रहता है कदाचित् देवता की पूजा हम नहीं कर पाते हैं तो भी उनकी पूजा-आराधना करने वालों की कमी नहीं है किन्तु पितरों के लिए विशेष अवसर पर उनके पुत्र-पौत्र ही तर्पण,पिण्डदान एवं ब्राह्मण भोजनादि कर्म करने का अधिकार रखते हैं और उन्हीं पितरों की प्रसन्नता से -

"गोत्रन्नो वर्धन्ताम्" का वरदान प्राप्त करते हैं।

जो श्रद्धायुक्त होकर पितरों का कर्म नहीं करते हैं उन्हें श्रेय की प्राप्ति नहीं होती है । इतना ही नहीं जिस वंश में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्धादि कर्मों का सम्पादन नहीं होता है उस वंश में वीर, निरोगी और चिरंजीवी पुरुषों का अभाव हो जाता है।

न तत्र वीरा जायन्ते निरोगी न शतायुषः । 
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्।।

पितृपक्ष में कन्याराशि पर सूर्य के आने से श्राद्ध का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है । कन्याराशि का सूर्य और आश्विनमास का कृष्णपक्ष अक्षयफल को देने वाला होता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या पर्यन्त सोलह दिन पितरों को तृप्त करने वाला महालय कहा गया है। इन सोलह दिनों में यदि एक दिन भी कोई श्राद्ध करता है तो उसके पितृगण अपना सम्पूर्ण आशीर्वाद प्रदान करते हैं जिस तिथि में माता-पिता की मृत्यु हुई रहती है पितृपक्ष में उसी तिथि के दिन श्राद्ध करते हैं। श्राद्ध करने से अनेक लाभ होते हैं । व्यक्ति पुत्र-पौत्र, धन-धान्य से संयुक्त होकर निरोगी बना रहता है। इस लोक में समस्त सम्पदा को प्राप्त कर वह परलोक में भी सुखी रहता है। श्राद्ध करने वाला व्यक्ति विपुल यश,आयु, प्रज्ञा, कीर्ति, तुष्टि, पुष्टि, बल, श्री, धन,विद्या, स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है।

आयुः प्रज्ञां धनं विद्यां स्वर्गमोक्षसुखानि च।

प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीता नृणां पितामहाः ।।
आयुः पुत्रान् यशः कीर्ति तुष्टिं पुष्टिं बलं श्रियम् । 
पशून् सुखं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ।।

जो पितरों के अस्तित्व में आस्थान्वित नहीं होते उनका वंश प्रमुदित नहीं होता है ।

"पिण्ड लोपेन अण्ड लोपः"

जो अपने पितरों को तिल - जल और पिण्ड प्रदान नहीं करता उसे पितर सुख कैसे दे सकेंगे ?

"गोत्रेन गात्रः"

अतृप्त पितर अपने निःश्वास से वंशधरों को क्षति पहुँचाते हैं । पितृदोष के कारण रोग, संतानहीनता और दरिद्रता की व्याप्ति हो जाती है फलतः अत्यन्त पवित्र धन के द्वारा थोड़े संसाधनों में जो प्रतिवर्ष श्राद्ध करता है उसे पितृदोष नहीं लगता है । श्राद्ध सांसारिक जीवन को तो सुखमय बनाता ही है , परलोक को भी सुधारता है और अन्त में मुक्ति भी प्रदान करता है । जो श्राद्ध करता है, जो उसकी विधि-विधान को जानता है, जो श्राद्ध करने का परामर्श देता है और जो श्राद्ध का अनुमोदन करता है - इन सबको श्राद्ध का पुण्यफल प्राप्त होता है।

"उपदेष्टानुमन्ता च लोके तुल्यफलौ स्मृतौ"

यही आर्य सनातन हिन्दू धर्म संस्कृति - सभ्यता है जो पूर्व एवं पुनर्जन्म में आस्थान्वित एवं आधारित है ।
आर्य सनातन हिन्दू धर्म संस्कृति की पारम्परिक पद्धति में देवताओं के समान पितरों की भी अर्पण - तर्पण एवं दान-पूजन की व्यवस्था शास्त्र एवं व्यवहार में प्रशस्त है।

देवताओं को हव्य प्राप्ति के लिए 'स्वाहा' शब्द प्रयुक्त है उसी प्रकार पितरों की प्रसन्नता के लिए कव्य प्राप्ति हेतु 'स्वधा' शब्द प्रयुज्यमान है । पितरों की तृप्ति एवं प्रसन्नता के लिए श्रद्धापूर्वक जो कर्म सम्पादित होता है,वही - श्राद्ध है । हमारे विलक्षण परम्परा में किसी भी देवार्चन एवं माङ्गलिक संस्कार सम्पादन से पूर्व ही पितरों का आवाहन-पूजन प्रथित है । इसे ही आभ्युदयी तथा नान्दी श्राद्ध कहते हैं । 
यमस्मृति में उल्लेख है -

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धमथापरम्।

पार्वणं चेति विज्ञेयं श्राद्धं पञ्चविधं बुधैः ।।

श्राद्धकर्ता को चाहिए की नित्य,नैमित्तिक, काम्य,वृद्धि एवं पार्वण के भेद से पाँच प्रकार के श्राद्धों का विधि-पूर्वक सम्पादन करे । आश्विन कृष्णपक्ष एवं कन्या राशिगत सूर्य पितरों का आलय ( निवास स्थान ) कहा गया है । अर्थात् पितरों के महोत्सव को महालय कहते हैं, दूसरे शब्दों में महान् पूर्वजों के निवास स्थान सूचक कालखण्ड को महालय कहा गया है । एकदृष्टि से सूर्य को कन्या - तुला राशिगत रहने के कारण भी महालय कहते हैं । इस महोत्सव में वंशोत्कर्ष की भावना से सभी लोग अपने दिव्य पितरों के लिए व्रत पूर्वक तर्पण एवं श्राद्ध करते हैं । महालय के संदर्भ में यह जानना आवश्यक है की पितृपक्ष आश्विन कृष्णपक्ष को ही कहते हैं, जबकि महालय का दिव्य काल सूर्य के कन्या एवं तुला राशि पर्यन्त होने को कहा गया है । इसवर्ष भाद्रपद पूर्णिमा ( अगस्त्य तर्पण ) रविवार 7 सितम्बर को है । अतः अगस्त्य तर्पण इसी मुहूर्त में कर लेना उत्तम होगा।

अनन्तर इसी प्रकार - 

08 सितम्बर को प्रतिपदा,

09 सितम्बर को द्वितीया,

10 सितम्बर को तृतीया,

11 सितम्बर को चतुर्थी,

12 सितम्बर को पंचमी  ( दिन में 01:40 तक अनन्तर षष्ठी )

13 सितम्बर को सप्तमी, ( दिन में 11:14 के पश्चात् )

14 सितम्बर को अष्टमी, ( दिन में 08:50 के पश्चात् )

15 सितम्बर को नवमी, ( प्रातः 05:36 के पश्चात् ) 

16 सितम्बर को दशमी,

17 सितम्बर को एकादशी, 

18 सितम्बर को द्वादशी,

19 सितम्बर को त्रयोदशी, 

20 सितम्बर को चतुर्दशी एवं 21 सितम्बर रविवार अमावस्या तिथि को पितृ श्राद्ध एवं कुश त्याग कर पितृ विसर्जन कर देना चाहिए।

ध्यातव्य है की जो तिथि कुतप वेला से संयुक्त हो वही पितरों को ग्राह्य है । ऐसा शास्त्र वचन है -

द्वौ यामौ घटिका नून्यो द्वौ यामौ घटिकाधिकौ।

स कालः कुतपो ज्ञेयः पितृणां दत्तमक्षयम् ।।

उक्त तिथियों में जिस तिथि को कर्मकर्ता के पिता की तिथि हो उसी तिथि को अपने पितरों की तृप्ति के द्वारा वंशोल्लास के लिए -

"गोत्रं नो वर्द्धतां दातारो नोऽभि वर्द्धन्ताम्"

का आशीष प्राप्त करते हैं । पितृ स्वरूपी जनार्दन देवता की प्रसन्नता से श्राद्धकर्ता सदैव प्रमुदित रहते हैं।

"पिण्डलोपेन वंश लोपः"

अतः साधन पूर्वक श्राद्ध की सम्पन्नता करें।

"देवपितृकार्यभ्यां न प्रमदितव्यम्"

देव पितरों के कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए । 

डाॅ.मनोज कुमार ठाकुर (SRD GURUKUL, KASHI)

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