हिंदी की वेदना - नीता सिंह
नदियों सी भाषा की धार
हर शब्दों में छिपा प्रहार
होता क्यूँ है तिरस्कार........
आँखें खोली स्वर-व्यंजन बोली,
कवियों से फिर की हमजोली,
धीरे धीरे इसकी उठ रही क्यूँब डोली,
मन में आता ये बारंबार.....
होता क्यूँ है तिरस्कार........
हर भाषा से तोला इसको
हर देश ने मोला इसको
बारंबार टटोला इसको
जान सके ना इसका सार
होता क्यूँ है तिरस्कार..........
हम आगे तो बढ़ जाएंगे
अपनी गरिमा को ठुकराएगें,
फिर भी उसे ना पा पाएंगे
हर कदमों पर खाएंगे हार
होता क्यूँ है तिरस्कार.......
सूर,तुलसी ने राह दिखाया
कबीर ने सच का पाठ पढ़ाया
पर ना किसी ने इसे अपनाया
मीरा का कम हुआ क्यूँ प्यार
होता क्यूँ है तिरस्कार.......
सोच कर मन है मलीन
अपने ही घर में खुद अधीन
सपने सारे हुए विलीन
नहीं मिलता कोई उपहार
होता क्यूँ है तिरस्कार......
प्रेमचंद भाषा के ज्ञानी
अंत समय तक हार न मानी,
कबीर की थी उल्टी बानी
बरसै कबंल भींगे पानी।
ले लो जरा इनका प्रतिकार
होता क्यूँ है तिरस्कार.......
कहते हैं माथे की बिंदी
ढूँढने से क्या मिलेगी हिंदी,
उजड़ रहा इसका संसार
होता क्यूँ है तिरस्कार.......
ताव कहाँ से आया सबको
भाव कहाँ से आया सबको
नहीं डाली होती गर तो?
कवियों द्वारा अंलकार....
होता क्यूँ है तिरस्कार.......
नकल के पीछे अकल खोएँ हैं
पतझड़ में हम मुँह धोएँ हैं
देख रहे हैं खुले आँखों से अंग्रेजों के संस्कार
होता क्यूँ है तिरस्कार.......
माना कि हम बदल रहे हैं नुमाइशों में टहल रहे हैं
कौन बोला है? छोड़ों तुम अपने गले का मुक्ताहार
होता क्यूँ है तिरस्कार.........
- नीता सिंह