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सुप्रीम कोर्ट में 7 जजों के पद रिक्त, जजों की कमी से जूझ रहे कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट में 7 जजों के पद रिक्त, जजों की कमी से जूझ रहे कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट में कुल स्वीकृत जजों की संख्या 34 में से 27 कार्यरत हैं। मतलब देश के सुप्रीम कोर्ट में सात जजों के पद रिक्त हैं।

 

 

 

नई दिल्ली : देश के उच्च न्यायालयों में 30 प्रतिशत और सुप्रीम कोर्ट में 21 प्रतिशत जजों की कमी है। भारत के 28 में से दो उच्च न्यायालयों को छोड़कर सभी में 12 से 46 प्रतिशत पद रिक्त हैं।

 

राजस्थान और गुजरात के हाईकोर्ट में 46 प्रतिशत जज कम हैं। उत्तराखंड उच्च न्यायालय में 36 प्रतिशत, प्रयागराज में 38 प्रतिशत, हिमाचल में 35 प्रतिशत पद रिक्त चल रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट में कुल स्वीकृत जजों की संख्या 34 में से 27 कार्यरत हैं। मतलब देश के सुप्रीम कोर्ट में सात जजों के पद रिक्त हैं।

कोर्ट में केस लंबित रहने की प्रमुख वजह जजों की कमी


देश के उच्च न्यायालयों में कुल 1,108 जजों के पद स्वीकृत हैं, जबकि कुल 773 पदों पर ही जज कार्यरत हैं और 30 प्रतिशत यानी 335 पद रिक्त हैं।

देश के सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में बड़ी संख्या में मुकदमों के लंबित रहने का एक मुख्य कारण बड़ी संख्या में जजों के पद रिक्त होना भी है।

हमारे देश की अदालतों में त्वरित न्याय मिल पाना दिनोंदिन कठिन होता जा रहा है। देर से किया गया न्याय अन्याय ही है। देश में इसी लचर न्यायिक व्यवस्था के कारण अपराधों का ग्राफ एवं अपराधियों का मनोबल बढ़ता जा रहा है।

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साथ ही न्याय के इंतजार में बैठे लोगों में असंतोष भी घर कर रहा है। समय पर न्याय नहीं मिलने के कारण निरपराधी को भी समाज में अपराधी होने का दंश झेलना पड़ता है।

अमेरिका और कनाडा देशों से बेहद पीछे है भारत


देश में आबादी के अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या पर्याप्त नहीं है। जहां अमेरिका में 10 लाख की आबादी पर 135 न्यायाधीश हैं, कनाडा में 75, आस्ट्रेलिया में 57 और ब्रिटेन में 50 न्यायाधीश हैं, वहीं भारत में इनकी संख्या महज 13 है।

मुकदमों की बढ़ती संख्या के आधार पर अनुमान है कि आगामी 10 वर्षों में देश में 10 लाख जजों की जरूरत होगी।

आबादी के ताजा आंकड़ों के हिसाब से 139 करोड़ भारतीयों के लिए हमें देश में 65 हजार अधीनस्थ न्यायालयों की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में 15 हजार न्यायालय भी नहीं हैं।

अदालतों के आधारभूत ढांचे में भी कई कमियां...!


यही नहीं, अदालतों के आधारभूत ढांचे की भी बात की जाए तो उसमें भी कई कमियां नजर आती हैं। कंप्यूटरीकरण एवं डिजिटलीकरण के आधुनिक युग में आज भी भारतीय न्यायालय बीते जमाने के ढर्रे पर चल रहे हैं।

अदालतों के कंप्यूटरीकरण की रफ्तार बिल्कुल सुस्त पड़ी हुई है। नई अदालतें बनाने का काम भी बहुत धीमी रफ्तार से चल रहा है। हमें न्यायिक व्यवस्था में सुधारवादी कदम उठाने होंगे, जिससे आम जनमानस में सुरक्षा और स्वाभिमान की भावना प्रबल हो सके।

ग्राम सभा स्तर पर ही यदि आपसी सुलह-समझौते के मामलों का निपटारा किया जाए तो छोटे-मोटे विवादों के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

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