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Supreme Court: सिविल सेवा कैटिगरीज में कैसे फिट होंगे दिव्यांग? अदालत ने केंद्र से आठ सप्ताह में मांगा जवाब

supreme court ने टू-फिंगर टेस्ट पर रोक लगाई- Breaking news

उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि दिव्यांगता के प्रति सहानुभूति एक पहलू है, लेकिन निर्णय की व्यावहारिकता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

 

सिविल सेवाओं की अलग-अलग कैटेगरी में दिव्यांगों को मौका दिए जाने संबंधित मामले में उच्चतम न्यायालय ने केंद्र को जांच के निर्देश दिए हैं।

कोर्ट ने बुधवार को एक मामले में सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से कहा है कि वह इस बात की जांच करे कि कैसे दिव्यांग लोगों को सिविल सेवाओं में विभिन्न श्रेणियों में मौका दिया जा सकता है। 



मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा है कि इस मामले में व्यवहारिकता को भी देखा जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति एस ए नजीर और न्यायमूर्ति वी रामसुब्रमण्यम की पीठ ने कहा कि दिव्यांगता के प्रति सहानुभूति एक पहलू है, लेकिन निर्णय की व्यावहारिकता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

कोर्ट ने कहा, दिव्यांग सभी श्रेणियों में फिट नहीं हो सकते हैं। ऐसे में इसकी जांच की जानी चाहिए। क्योंकि, सहानुभूति एक पहलू है और व्यावहारिकता दूसरा पहलू।



इस दौरान कोर्ट ने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि चेन्नई में सौ फीसदी दृष्टिहीन व्यक्ति को जूनियर डिवीजन में सिविल जज के रूप में नियुक्त किया गया था।

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बाद में उसने तमिल पत्रिका के रूप में संपादक का काम किया। 

आठ सप्ताह बाद होगी सुनवाई


वहीं केंद्र की ओर से इस मामले में कहा गया है कि व सिविल सेवाओं की विभिन्न कैटेगरी में दिव्यागों की भूमिका की जांच कर रही है।

इस दौरान केंद्र ने कोर्ट से समय मांगा, जिस पर कोर्ट ने आठ सप्ताह का समय दिया है। 

हाईकोर्ट ने कहा- अनुकंपा आधार पर नौकरी आरक्षण के समान नहीं

न्यायाधीश अरुण मोंगा ने फैसले में कहा कि अनुकंपा के आधार पर नौकरी का प्रावधान मृतक कर्मचारी के परिवार को उसकी मौत के बाद अचानक अभाव का जीवन बिताने से बचाने के लिए है। यह नियोक्ता की तरफ से मदद करने का एक तरीका है, ऐसे में इसे आरक्षण की तरह इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं समझा जा सकता।

 

पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट: अनुकंपा के आधार पर नौकरी दिए जाने की मांग संबंधी एक याचिका को खारिज करते हुए पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने फैसले में कहा कि इसे आरक्षण के दावे की तरह नहीं समझा जा सकता।

न्यायाधीश अरुण मोंगा ने फैसले में कहा कि अनुकंपा के आधार पर नौकरी का प्रावधान मृतक कर्मचारी के परिवार को उसकी मौत के बाद अचानक अभाव का जीवन बिताने से बचाने के लिए है। यह नियोक्ता की तरफ से मदद करने का एक तरीका है, ऐसे में इसे आरक्षण की तरह इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं समझा जा सकता।

मौजूदा मामले में याची ने पिता की मौत के लंबे समय बाद अनुकंपा आधार पर नियुक्ति दिए जाने की मांग की है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। हाईकोर्ट ने फैसले में कहा कि याची के पिता हरियाणा सरकार के सिंचाई विभाग में क्लर्क के पद पर कार्यरत थे।

28 मार्च 2003 को उनकी मौत हो गई। उस समय याची 16-17 साल का था। 26 जून 2003 को वह अनुकंपा आधार पर नौकरी पाने के लिए योग्य था।

उसने सीनियर सेकेंडरी परीक्षा पास कर ली थी। हाईकोर्ट ने इस पर कहा कि नौकरी के लिए दावा 19 साल बाद वर्ष 2022 में किया जा रहा है। एक लंबा समय बीत चुका है। परिवार पर मौजूदा समय में अचानक कोई परेशानी नहीं आई है जिस पर विचार किया जाए। ऐसे में अब इस दावे पर विचार नहीं किया जा सकता।

इस समय में परिवार वित्तीय सहयोग पाने का ही हकदार

हाईकोर्ट ने कहा कि वर्ष 2003 के नियमों के मुताबिक अनुकंपा आधार पर नौकरी का दावा किया जा सकता था लेकिन वर्ष 2006 के नियमों के मुताबिक वित्तीय मदद भी ली जा सकती है। विभाग की तरफ से हाईकोर्ट में कहा गया कि मौजूदा समय में परिवार वित्तीय सहयोग पाने का ही हकदार है।

विभाग की तरफ से वित्तीय मदद की ऑफर दी गई जिसे परिवार ने मंजूर नहीं किया और वर्ष 2003 के नियमों के मुताबिक नौकरी का दावा किया जा रहा है पर लंबा समय बीत जाने के बाद अब इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।

उच्चतम न्यायालय ने भी एक सुनवाई के दौरान की थी ऐसी ही टिप्पणी

उच्चतम न्यायालय ने 3 अक्टूबर को एक ऐसे ही मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति एक सुविधा है, अधिकार नहीं। इस तरह रोजगार प्रदान करने का मकसद प्रभावित परिवार को अचानक आए संकट से उबरने में सक्षम बनाना होता है।

उच्चतम न्यायालय ने केरल हाईकोर्ट की खंडपीठ के उस फैसले को खारिज कर दिया था जिसमें उसने एकल पीठ के फैसले को सही ठहराया था।

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