Malavgadh Ki Malvika: Novel in Hindi: मालवगढ़ की मालविका, एक महत्वपूर्ण उपन्यास

सामने नीम, पीपल के वृक्षों पर शाम उतर आई है। आर्ट गैलरी के आगे बढ़ती भीड़ मुंबई को हसीन जवान बना रही है। मैंने शकुंतला का तैलचित्र खरीदा है और समित को उसके घर की तरफ़ जाती हुई पतली कच्ची पगडंडी पर छोड़ती हुई घर लौट आई हूँ। कार पोर्टिको में पार्क की तो लछमन ने दरवाज़ा खोलकर देखा और नज़दीक आ गया।
“लछमन, कार में पेंटिंग रखी है। उसे मेरे बेडरूम की दीवार पर टाँग दो।”
लछमन ने कमरे में आकर पहले मुझे पानी दिया फिर एक लंबा लिफाफा। मैंने संकेत से पूछा- काम हो गया?
“जी।”
और वह पेंटिंग लाने पोर्टिको की ओर चला गया। मैंने लिफाफा खोलकर टिकट निकाली मालवगढ़ की।
मालवगढ़! हाँ....मालवगढ़ जाना है मुझे! अतीत के तहख़ाने टटोलने.... या अतीत के नहीं बल्कि अपने अंदर दबे दर्द के तहख़ाने पहचानने कि उनमें कितना दम है अभी। उन बिखर गए पलों को बटोरने की ज़िद बार-बार मुझे मालवगढ़ की ओर ढकेल रही थी।
जीप वाले रास्ते को याद कर मन सिहर जाता है। ऊबड़-खाबड़, रेत के ढूहों से भरा....बबूल, कीकर के कँटीले पेड़, झाड़ियाँ....शाम होने से पहले पहुँचने की हड़बड़ी क्योंकि रात होते ही डाकुओं का भय घेरे रहता। जाने कितनी अथाह स्मृतियाँ समाई हैं मुझमें....मैं भूल ही नहीं पाती कुछ....उन स्मृतियों की ही ज़िद है ये जो आज मेरे एकाकी जीवन की ज़िम्मेवार है।
शादी नहीं करने के मेरे संकल्प की ज़िम्मेवार है। मुझमें भरोसा भी खूब जगाया है उन स्मृतियों ने। एम. ए. .... इटली जाकर पी-एच.डी., फिर कलकत्ता के कॉलेज में लैक्चरर, हैड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट और फिर यहाँ प्रोफेसर....ये बुलंदियाँ उन्हीं स्मृतियों की देन हैं। नाते रिश्तों में खुसर-पुसर मच गई थी। पायल नौकरी करेगी, शादी नहीं करेगी? बड़ी दादी बिस्तर पर पड़े-पड़े माथा ठोककर चीखी थीं- “बावरी हो गई है, मत मारी गई है? मैं न कहती थी कि अभी माहवारी शुरू नहीं हुई है, सयानापन से पहले कर दो शादी। पर सुना किसी ने? अब लो भुगतो, कुँवारपन नहीं उतरेगा, अधर्मी हम कहलाएँगे।”
ज्यों पटाखे की लड़ी में किसी ने जलती अगरबत्ती छुआ दी हो....यहाँ से वहाँ तक ख़बर फ़ैल गई....सबने नाक-भौं सिकोड़ी- “हुआ है ऐसा इतने बड़े ख़ानदान में कभी। बाप-दादों का मान-सम्मान, रुतबा डुबोने पर तुली है।”
मगर मैं दृढ़ थी। क्यों नहीं खड़ी हो सकती मैं अपने पैरों पर, क्यों नहीं रूपया कमा सकती, क्यों नहीं स्वावलंबी बन सकती? मानती हूँ रुपयों की कमी नहीं है इस ख़ानदान को, लेकिन क्या वह मेरा कमाया हुआ है? मैं अपनी मेहनत से कमाना चाहती हूँ, कुछ कर दिखाना चाहती हूँ। यही चुनौती आज भी मेरी रगों में समाई है। अपने फैसले खुद करना। तभी तो बाबूजी मेरे बनारस नहीं आने पर चौंके नहीं। हालाँकि यूनिवर्सिटी की तमाम लंबी छुट्टियों में वे आतुरता से मेरी प्रतीक्षा करते हैं।
ज़रूरी कपड़ों से सूटकेस भर जब मैं ट्रेन में बैठती हूँ तो समित समझाता है- इत्मीनान से छुट्टियाँ गुज़ारना, उतने दिनों के लिए भूल जाना मुंबई को।
मैं मुस्कुराती हूँ, कहना चाहती हूँ....तुम्हें भी समित। अनजान-सा रिश्ता है समित से मेरा। मेरी हर बेचैनी, हर तकलीफ़, हर उदासी का एकमात्र साथी। बीसियों बार जब अकेलेपन से घबराकर मैंने अपने आपको जुहू या चौपाटी के किनारे पाया है....या मरीन ड्राइव की समुद्री फुहारों में खुद को भिगोया है तो इसी समित ने मेरे ऊबे हुए समय को बाँटा है।
खुद की लिखी कविताओं को तरन्नुम में गाकर उन पलों के भारीपन को हलका किया है। कभी-कभी हम बहस में डूब जाते हैं। अमेरिकन साहित्य, अफ्रीकी साहित्य या फिर जापान की हाहूक कविताएँ....समित कहता- “ये जापानियों की दृष्टि इतनी सूक्ष्ण क्यों होती है? तीन या चार पंक्ति की कविता, एक फुट के बरगद, पीपल के बोन्साई, चावल खाने की लंबी चम्मच ऐसी कि एक बार में चार कण चावल मुँह में जाएँ।”
मैं हँसकर कहती- “देखन में छोटे लगें, घाव करैं गंभीर” ट्रेन चली तो समित ने मेरे हाथों को हलके से छुआ- “ऑल दि बेस्ट।”
देर तक वह मेरी आँखों में बना रहा, ओझल होने के बावजूद भी।
ताँगा कोठी के ऐन फाटक पर आकर रुका जहाँ कोठी के ऊँचे रोशनदान के ऊपर देवनागरी लिपि में धुँधले पड़ गए काले हर्फ़ झिलमिला रहे हैं ‘प्रताप भवन’। रामू काका कनेर, तगड़ और गुलबकावली के पेड़ों में पाइप से पानी डाल रहे थे। रामू काका मेरे बाबा के ज़माने के नौकर कोदू के बेटे....कोठी की देखभाल करने के लिए तैनात, ताँगा रुकने की आवाज़ सुनते ही वे पाइप छोड़ दौड़े-
“अरे पायल बेटी, यो म्हें कै देखूँ हूँ, यो कठ सपणो तो कोणी?”
और ताँगे से उतरते ही मैं बाबूजी सादृश रामू काका से लिपट गई। वे कंधे पर पड़े गमछे से अपने झर-झर बहते आँसू पोंछते हैं। गला भर आया है रामू काका का। कहते कुछ नहीं, ताँगे से सामान उतारकर कोठी के मेन हॉल में रखते हैं- “बैठ बेटी, थारे खातिर सरबत बणा ल्याऊँ।”
मुझसे मना नहीं किया जाता। बरसों से इस अपनत्व की भूखी थी मैं। मैंने धीरे-धीरे सैंडिलें उतारीं....स्लीपर पैरों में डाली और घूम-घूमकर कोठी का कोना-कोना पहचानने की कोशिश करने लगी। पहचान अम्मा ने दी थी....जैसे संजय ने धृतराष्ट्र को रणभूमि का आँखों देखा हाल सुनाया था....वैसी ही जीवंत पहचान....कि मुझे लगा जैसे मैं ताउम्र इसी कोठी में रहती आई हूँ और देख रही हूँ हॉल की दीवारें जहाँ बड़े बाबा, बड़ी दादी और मेरे बाबा की आदमकद पेंटिंग्स हैं जिन पर चंदन की मालिकाएँ पड़ी हैं और जिन्हें आज भी रामू काका बदस्तूर झाड़ते-पोंछते रहते हैं लेकिन दादी की पेंटिंग नहीं है....क्यों?
क्यों दादी को उच्छिष्ट-सा इस कोठी से बुहार दिया गया। बाबा के ऐन बाजू की जगह खाली है।....एक शून्य का फैलाव, लेकिन यह भी सच है कि तमाम आकाशगंगाएँ इसी शून्य की ओर खिंचती हैं, समाती हैं, विलीन हो जाती हैं। शून्य बना का बना रहता है। दादी की पेंटिंग अम्मा ले गई थीं! अम्मा ने बनारस में अपने बंगले, जिसका नाम उन्होंने मालविका कुंज रखा था, की बैठक की दीवार पर उसे टाँग दिया था। उसी पेंटिंग से अतीत ने मुँह-बाया था....
मालवगढ़ का अतीत। अतीत की दराजें खुली हैं और यादों के पतंगे उड़-उड़कर मेरी स्मरण शक्ति पर मँडरा रहे हैं। सामने दादी का कमरा है, बड़ा-सा शीशम का पलंग जिस पर रेशमी गद्दा बिछा था। शकरपारों की शक्ल के टाँकों वाला। दादी के ज़माने में इस पर नर्म रेशम की कत्थई चादर बिछा करती थी जिसके कोनों पर क्रोशिये से बुनी तितलियाँ टँकी थीं।
तख़्त के पाये नक्काशीदार थे जिनकी जाली में हाथीदाँत जड़ा था। पलँग के ऊपर रेशमी, झालरदार हथपँखा था। दादी घर की दिनचर्या से फारिग हो जब अपने लंबे बालों का जूड़ा खोल इस पर आराम करतीं तो दरवाज़े पर बैठा दरबान पंखे की डोर खेंचने लगता। एक रोज़ बाबा ने उसे काम के दौरान तंबाखू मलते देख लिया था तो ज़ोर से दहाड़े थे- “काम के वक़्त नशा करता है, ऐंऽऽऽ?”
दरबान के हाथ की तंबाकू समूची नीचे और हाथ सैल्यूट की मुद्रा में माथे पर- “हुज़ूरऽऽ“
इसी दरबान की लड़की की शादी में दादी ने दस हज़ार की मदद की थी। बारातियों के लिए आलू, प्याज़ के बोरे भिजवाए थे सो अलग। तभी तो प्रताप भवन की डाँट-फटकार भी यहाँ के नौकरों को वरदान-सी लगती थी।
अंग्रेज़ों का वक़्त! अभयसिंह यानी बाबा थे ज़मीदार। लेकिन स्वतंत्र भारत देखने का सपना लहू बनकर बह रहा था। स्वतंत्रता आंदोलन के प्रणेता महात्मा गाँधी के सक्रिय सहयोगियों में उनका नाम अवश्य था किंतु चाणक्य नीति के वे हामी भी थे। उनकी जड़ें काटने के लिए उन्होंने अंग्रेज़ों की ही कुल्हाड़ी इस्तेमाल की। इलाक़े के सभी अंग्रेज़ बाबा की मुट्ठी में।
अंग्रेज़ी राज्य के गुणों का बखान करते वे थकते नहीं थे। लिहाज़ा विदेशी गाड़ी हमेशा प्रताप भवन के गेट पर खड़ी रहती, विदेशी शराब, विदेशी सिगरेट....दादी चिढ़ती- “यह सब क्या है? आखिर काहे को आने देते हो उन्हें घर?”
“मित्र हैं हमारे! उनके राज में जी रहे हैं तो घर न आवेंगे?”
बाबा ठहाका लगाकर बात उड़ा देते। लेकिन उनकी गतिविधियों की जानकारी उन्हें कुछ-कुछ भासने लगी थी। रात को चुपके से स्टडी के कमरे में जाकर टेबिल लैंप की रोशनी में न जाने क्या लिखते थे वे। एक दिन दादी ने चुपचाप काग़ज़ देखे तो दंग रह गईं। न भाषा समझ में आई, न कुछ कूत में घुसा। आड़ी टेढ़ी रेखाओं का जाल और सांकेतिक शब्द....कोठी में एक तलघर भी था जहाँ कभी कोई नहीं जाता था। लेकिन बूढ़ी महाराजिन, जो थी तो पूर्वी उत्तर प्रदेश की लेकिन बरसों से अपने पति के साथ कोठी का चूल्हा-चौका सम्हाले थी, बड़े राज़दाराना अंदाज़ में अम्मा को बताती थी- “हुँआ पुरखों के कपड़ा, लत्ता, माल असबाब धरा है लोहे के संदूकों में।”
“तुझे कैसे मालूम?”
“लो सुनो दुलहिन की बात। अरे, तुमसे पहले से हम जो हियाँ जमे बैइठे हैं। सब कुछ हमार आँखिन के सामने ही हुआ है। थोड़ा आटा और दो दुलहिन.... आज बहुत रोटियाँ सिकेंगी।”
“क्यों?” अम्मा को महाराजिन की जानकारी पर आश्चर्य होता। उन्हें तो किसी ने नहीं बताया कि ज़्यादा रोटी सिंकवा लो।
“अरे, छोटे मालिक का हुकुम है। अब हम कइसे पूछें कि क्यों?”
छोटे मालिक यानी बाबा....बड़े बाबा को सब बड़े मालिक कहते थे। बड़ी दादी बड़ी मालकिन लेकिन दादी सिर्फ़ मालकिन के नाम से मशहूर थीं।
काग़ज़ों में रोटियों के पैकेट बने। आलू की सूखी भुजिया कटोरदान में भरी गई। दादी समझ गईं अब सारा पसारा देवबाबा की मड़िया भेजा जाएगा। हर आड़े दूसरे वहीँ भेजा जाता है। पूछने पर संक्षिप्त-सा उत्तर बाबा का- “कुछ गरीब हैं वहाँ....बेआसरा, और सुनो महारानी मालविका, कल सिविल लाइन के अंग्रेज़ अफसर रात का खाना खाएँगे।”
उनका खाना यानी मुर्ग मुसल्लम।
चार-पाँच मुर्गे दरबान से कटवाए गए। पिछवाड़े पक्के चबूतरे पर....तमाम पंखों को गड्ढा खोदकर गाड़ा गया और खून भरा चबूतरा पानी से धोया गया। दादी की देखरेख और निर्देशन में मुर्ग मुसल्लम, मुर्ग कोरमा, मुर्ग तंदूरी पकता....लेकिन चौके में नहीं, बाहर आँगन में अँगीठी पर....बर्तन भी अलग होते। दादी यह सब बाबा की ख़ातिर करतीं। हालाँकि वे कभी अंग्रेज़ों के सामने नहीं जातीं।
उनके खाने के कमरे और हॉल के बीच जो दरवाज़ा था उस पर रंग-बिरंगी काँच की सलाखों का परदा पड़ा था। दादी इसी परदे के पीछे खड़े हो बंसीलाल के ज़रिए भोजन परोसवातीं। उनके खाने के बाद नुची-चुसी हड्डियाँ फिर गड्ढा खोदकर गाढ़ी जातीं। पूरे घर में धूप लोबान का धुआँ किया जाता। एक दिन जिद्दिया गईं- “नहीं बनेगा मुर्गा-शुर्गा....शुद्ध भारतीय भोजन कराएँगे हम।”
बाबा कुछ नहीं बोले लेकिन टेबिल पर सुगंधित मसालेयुक्त गट्टे की सब्ज़ी, हींग लहसुन से छौंकी गई अरहर की दाल, बासमती चावल, आम का अचार और गोभी दम जब परोसा गया तो अंग्रेज़ अफसर वाह-वाह कर उठे। खाने के बाद चूरमा के लड्डू। देर रात तक अंग्रेज़ों ने उठने का नाम नहीं लिया।
दादी ने सोने में सुहागा यह भी कर दिया कि चाँदी के वर्क लगे कलकतिया पान के बीड़े भिजवा दिए। सलाखों के परदे के पीछे से जब उन्होंने सामने बैठे अंग्रेज़ के मुँह में भरी पान की पीक ठोड़ी तक बहते देखी तो हलके से हँस दीं। पर बाबा को उनकी हँसी की खनक सुनाई दे गई। वे परदे की ओर देखने लगे।
इसके ठीक हफ्ते भर बाद दादी के आगे सारे रहस्य खुल गए। बाबा ने शायद सब कुछ छुपाया इसलिए होगा कि कहीं बात प्रताप भवन से बाहर न चली जाए। उस दिन फिर मुर्गे कटे थे, फिर विदेशी शराब की बोतलें खुली थीं और जब कोहरा गहराने लगा था, ठंड बढ़ने लगी थी तो नशे में लड़खड़ाते, गिरते-पड़ते अंग्रेज़ अफसर गाड़ियों में ठुँस गए थे और जब उनकी गाड़ियों की पिछली बत्तियाँ कोहरे के सागर में टिमटिमाते दीये-सी दिखाई देने लगीं तो बाबा ने दरबान को फाटक बंद करने का हुक्म दिया और दादी के पास पलंग पर बैठते हुए दहाड़े- “मरेंगे साले, कुत्तों की मौत मरेंगे। समझा क्या है कि हम हिन्दुस्तानियों ने चूड़ियाँ पहन राखी हैं?”
“क्यों, तुम्हारे तो दोस्त हैं सब?”
“हुँह।” बाबा ने हिक़ारत से गर्दन को लोच दी। फ़दादी ताज्जुब से उन्हें देखने लगीं- “तो बुलाते क्यों हो? मुझे तो इनका आना ही बर्दाश्त नहीं। बाम्हन को खिलाओ तो पुन्न मिले, मरे म्लेच्छों को खिलाकर क्या पा लोगे? न स्वर्ग, न नरक, लटके रहोगे त्रिशंकु बने।”
“अरे....यही बात समझ लो तो तुम झांसी की रानी न बन जाओ। ये कूटनीति है महारानी, कूटनीति....जिस दिन हमारी पार्टी को मैंने इनके सारे भेद पकड़ा दिए उस दिन विस्फोट होगा विस्फोट....”
और वे दादी की बाँह पकड़कर उन्हें चुपचाप तलघर में लिवा ले गए- “देखो....देखो आज़ादी का इंतज़ाम....सब कुछ तैयार है यहाँ।”
दादी की आँखें फटी की फटी रह गईं। बम, बारूद, हथगोलों, हथियारों से भरा तलघर....वे डरकर बाबा से सट गईं।
“जानती हो मालविका? देव बाबा की मड़िया के पीछे जंगल में स्वतंत्रता सेनानी इन्हें चलाने की ट्रेनिंग पा रहे हैं। महीनों से छुपे हैं उस जंगल में वेश बदलकर। उन्हीं के लिए मैं थोड़ा-बहुत खाना भिजवा देता हूँ। जंगल से लगे गाँव के सरपंच के यहाँ से नियमित कलेवा भेजा जाता है। तुम तो सोती रहती हो और मैं सारी-सारी रात काग़ज़ों पर नक्शे, योजनाएँ बनाता हूँ।”
दादी और सट गईं बाबा से....बल्कि लिपट ही गईं। बदन थरथरा रहा था कमल के पत्ते पर बूँद-सा....आँखों में जल प्लावन....
“कल से नियमित खाना भेजिए देव बाबा की मड़िया।”
बाबा ने हुलसकर दादी को चूम लिया था और सब कुछ गुप्त रखने का आदेश दिया था। दादी सारे रहस्य गोली के समान निगल गई थीं और दूसरे दिन से बदस्तूर स्वादिष्ट भोजन उन रण बाँकुरे देशभक्तों के लिए भेजा जाने लगा।
खुद के लिए बाबा सादा भोजन पसंद करते। प्रताप भवन का बाबा के पड़बाबा के समय से नियम चला आ रहा था, सुबह नौ बजे बड़े हॉल के बड़े गोल टेबिल के किनारे रखी कुर्सियों पर पूरे परिवार का आ जुटना। पड़बाबा के समय टेबिल की जगह संगमरमर की चौकियों पर बैठकर खाना, नाश्ता खाया जाता था। नाश्ते के समय घर की बहुओं का भी उपस्थित रहना आवश्यक था। दोपहर का भोजन नियमित नहीं था। जो जब आता परोस दिया जाता। अलबत्ता बहुएँ मिलकर खाती थीं।
बाबा शुद्ध भारतीय थे। उनके जैसा अनुशासित योगी व्यक्ति मैंने कभी सुना नहीं आज तक। बाबा सुबह चार बजे उठ जाते। नित्यकर्म से फुरसत हो सफेद बुर्राक़ धोती-कुरता पहन चाँदी के मूठ वाली छड़ी हाथ में ले घूमने निकल जाते। घूमना उनका बनास नदी के तट तक नहीं होता। लौटकर आते तो बाहर लॉन में बैठकर अखबार पढ़ते। तब तक दादी नहा चुकतीं। कोदू गोल छोटी तिपाई लॉन में रखता जिस पर कश्मीरी काढ़ की सुंदर टीकोज़ी से ढकी ख़ास दार्जिलिंग की खुश्बूदार चाय होती। दूध, शक्कर चाँदी के अलग-अलग बर्तनों में।
सुबह की चाय में बाबा शक्कर नहीं लेते थे। यह चाय दादी खुद अपने हाथ से बनाती थीं। चाय पीते हुए बाबा कुछ ख़ास ख़बरें दादी को पढ़कर सुनाते। दादी साक्षर थीं। फिर भी सुबह की ख़बरें बाबा के मुँह से ही सुनती थीं। ख़बरों पर चर्चा भी होती। दादी के तर्क बाबा को दंग कर जाते, वे लाड़ से उन्हें देखते।
फिर शुरू होती बागवानी, पीले पत्तों को काटना, पौधों की काट-छाँट करना, उन्हें सुंदर आकार देना, लताओं को गेट या मण्डप पर चढ़ाना, पौधों में खाद, पानी, मिट्टी अपनी देखरेख में माली से डलवाना बाबा का ख़ास शगल था। माली देर से आता, तब तक दादी बाबा के साथ रहतीं, उनके शौक में हाथ बँटाती। उनके रुई से मुलायम हाथ खुरपी की मूठ पकड़े लाल हो जाते। इतने बड़े ज़मींदार होने का घमंड न कभी बाबा को हुआ, न दादी को। अपनी सरलता, सादगी और निश्छलता ने उन्हें तमाम छोटे-बड़े पदों के व्यक्तियों का चहेता बना दिया था।
बाबा ने लॉन के बीच गोलाई में सफेद गुच्छेदार गुलाबों के पौधे लगवाए थे। इन पौधों पर इतने अधिक फूल खिलते कि इनकी पत्तियाँ छुप-सी जातीं। दिसंबर की शुरुआत में न जाने कहाँ से आकर हर साल इन फूलों पर तितलियों का दल नर्तन करता था। ये तितलियाँ काले-पीले पंखों वाली मोनार्क तितलियों जैसी थीं। बाबा अमेरिका रिटर्न थे। किसी कार्यवश उन्हें अमेरिका जाना पड़ा था।
बाद में वे इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, हॉलैंड, जर्मनी और नॉर्वे भी घूम आये थे जहाँ मध्यरात्रि में सूर्य निकलता है लकिन जब वे अमेरिका गए थे तो प्रताप भवन में सन्नाटा छा गया था। सबके ख़ामोश होंठों पर बस यही तर्क था कि बाबा दिसावर क्यों जा रहे हैं? मालवगढ़ के निवासियों के लिए राजस्थान उनका अपना देश था बाकी परदेस। आदमी कलकत्ता, बंबई, दिल्ली कमाने जाए तो कहते दिसावर गया है....न जाने कितने दिन लगे थे उन्हें समझाने में कि वे विदेश जा रहे हैं....और कमाने नहीं।
तो जब भी बाबा फूलों पर काले-पीले पंखों वाली तितलियाँ देखते एकदम उत्साह से भर जाते, बताते- “जब मैं मैक्सिको गया था....ओहो हो क्या बताऊँ। इतने खूबसूरत और घने जंगल हैं वहाँ....चीड़, देवदार के दरख़्तों से भरे, झरने, पहाड़ी चश्मों से भरे....झर-झर पानी बहता रहता है उनमें कितना पानी....अथाह....और बिल्कुल इन्हीं तितलियों जैसी मोनार्क तितलियाँ सैकड़ों की तादाद में मँडराती रहती हैं पेड़ों पर....झुंड-की-झुंड....सैलाब जैसी....कुछ तितलियाँ तो मेरे ऊपर बरस रही थीं। मेरे बादामी कुर्ते पर उनके पंखों के दाग उभर आए थे।”
दादी मुस्कुराती हुई न जाने कितनी बार तितलियों के बरसने का किस्सा सुन चुकी थीं और हर बार उनकी उन दिनों की स्मृति में वह घटना बिजली-सी कौंध जाती जब बाबा के अमेरिका चले जाने पर बड़ी दादी ने उन्हें तब तक सिर नहीं धोने दिया था जब तक उनके पहुँचने की ख़बर नहीं आ गई थी। दादी बाबा को बहुत चाहती थीं लेकिन ऐसी ऊटपटाँग मान्यताओं में उनका विश्वास न था, फिर भी करना पड़ता। वरना दादी बाबा के इश्क से तो पूरे खानदान को रश़्क था। दादी जानती थीं, यह चंदन वन उन्होंने ऐसे ही नहीं पा लिया है। क़दम-क़दम पर फुफकारते नागों का सामना किया है।
दादी खुद भी नियम-धर्म वाली थीं। व्रत-उपवास, तीज-त्यौहार और भारतीय परंपराओं का निर्वाह उनके रक़्त में पगा था। रसोईघर में महाराज और महाराजिन प्रवेश कर सकते थे। वो भी नहा-धोकर, चुटिया में गाँठ मारकर, जनेऊ पहनकर और सिल्क की कोसई धोती पहनकर। महाराजिन कोसई साड़ी ब्लाउज़ में। चोली, घाघरा न दादी ने कभी पहना न अम्मा को पहनने दिया। महाराजिन के लिए भी मनाही थी।
घर में कुल दस सदस्य, बाबा, दादी, अम्मा, बाबूजी, बड़े बाबा, बड़ी दादी और उनकी तीन बेटियाँ....उषा बुआ, संध्या बुआ, रजनी बुआ और मैं....नौकर-चाकरों को मिलाकर बीस लोगों की रसोई महाराज के ज़िम्मे। नौकरों को दाल, सब्ज़ी कटोरों में दे दी जाती। जसोदा और कंचन मिलकर नौकरों की रोटी सेक लेतीं। जसोदा अम्मा की सेविका थी और कंचन दादी की। पन्ना तीनों बुआओं की और मेरी सेविका। खाना परोसने और ऊपरी कामों के लिए बंसीमल था। सुबह सारा राशन घी, तेल, मसाले, मेवा मिश्री, पापड़, कुरैरी, अचार भंडार घर से निकालकर महाराज को सौंपने का काम दादी करतीं।
अम्मा रसोईघर में मुढ़िया डाल बैठ जातीं। महाराज पकाता, महाराजिन रोटी सेंकती। हर सब्ज़ी में काजू, पिस्ता, बादाम पड़ना ज़रूरी था वरना बड़े बाबा, बड़ी दादी निवाला नहीं तोड़ते थे। वैसे भी बड़ी दादी बरसों से खटिया पर थीं। न जाने कौन-कौन से रोग तोते की तरह पले थे उनके शरीर में। एक नर्स चौबीसों घंटे तीमारदारी के लिए तैनात थी। नर्स मिशिनरी अस्पताल से बुलाई गई थी, ईसाई....देखते ही बड़ी दादी ने नाक-भौं सिकोड़ी थी लेकिन कुछ ही दिनों में नर्स मारिया ने अपने सुंदर स्वभाव से उनका मन जीत लिया था- “हम हिंदू ईसाई हैं बड़ी आंटी, साउथ में बैंगलोर शहर के।”
बड़ी दादी सुनकर आश्वस्त तो हुई फिर भी ‘दुलहिनऽऽऽ’ की पुकार हर दसवें मिनट में लगा ही देतीं और उनकी हर पुकार पर दादी हाज़िर- “हाँ जीजी, बुलाया आपने?”
“हाँ, मैं कह रही थी तीजें आ रही हैं। समधियानों में भेंट भिजवाने की तैयारी कर ली?”
भेंट यानी केवल सत्तू के लड्डू नहीं बल्कि अचार, पापड़, मुरब्बे, मुंगोड़ियाँ...तीजों पे ननदों, बेटियों के घर सिंजारा के लिए मेहँदी, साड़ियाँ, इक्कीस-इक्कीस चाँदी के सिक्के, केशर रचे बासमती चावल सब भेजा जाता। दादी अपनी देखरेख में बड़े-बड़े मर्तबानों में ल्हिसौड़े टैंटी के अचार डलवातीं। अम्मा के हाथ का आम और काबुली चनों का हैदराबादी अचार मेरी फुफेरी बुआओं को ख़ास पसंद था।
राजापुरी आमों का कसा हुआ मीठा लच्छा चचेरी बुआओं के ससुराल भेजा जाता। पापड़ के पाँच-पाँच किलो के पैकेट, कनस्तरों में घी, गुड़ की भेलियाँ, कुटी सौंठ, गरम मसाला, गोंद बादाम की बर्फी, सत्तू के लड्डू सब प्रताप भवन के लिए तो तैयार होता ही लेकिन पूरे ख़ानदान की बेटियों, ननदों के ससुराल भी उसी मिक़दार में भेजा जाता और यह सब केवल दादी करतीं। दादी से ख़ानदान चल रहा था। दादी धरती की तरह सबको समेटें थीं, ऐसे बीजों को, जो कल आबाद होकर जंगल बनेंगी। तो दादी ही जंगल कहलाई न।
जहाँ दादी संस्कार, परंपरा और मान्यताओं से ओत-प्रोत थीं, अम्मा में भीतर विद्रोह सुलगता रहता था। अम्मा का यही विद्रोही स्वभाव मेरे अंदर रचा-बसा था। इस स्वभाव के कारण मुझे ज़िंदगी में अगर कुछ खोना पड़ा तो वह नगण्य है क्योंकि मैं जो बनना चाहती थी बनी, जो कर दिखाना चाहती थी.... किया....अम्मा मेरा आदर्श रहीं....मैं तो इस्लाम, कैथोलिक, यहूदी धर्म की पुस्तकें पढ़कर धीरे-धीरे ख़ानदान से अलग-थलग मार्ग का चुनाव करती रही लेकिन अम्मा कीचड़ में खिला वो कमल पुष्प थीं जो सूर्य उगते ही अपने जागरण का, खिलने का संकेत देता है। मैंने हमेशा अम्मा को अपनी सोच, अपने विचारों पर चलते देखा तभी तो बाल वय की मेरी ज़िद, मेरे तर्क को उन्होंने दुत्कारा नहीं था।
होलि काष्टक लगते ही दादी माली से गोबर मँगवाकर बड़कुले बनवाने लगतीं। गोबर के चाँद, सूरज, नारियल बड़कुलों को सुतली में पिरोकर बड़ी-सी जेळ माला की होली तैयार होती। आँगन के ऐन बीचों-बीच। पूरा मालवगढ़ फागुन से महक उठा था इस बार कुछ अधिक। महुए की गमक हवा को नशीला बना रही थी। मालवगढ़ है भी राजस्थान का दक्षिण-पूर्वी भाग जहाँ अभ्रक के पर्वत, हरी भरी पहाड़ियाँ, उपजाऊ धरती, घने जंगल और बनास नदी का छलछल बहता जल है। मालवगढ़ में होली का रंग महीने भर पहले से ही लोगों के दिलों पर छा जाता है। क़दम थिरक उठते हैं ‘गींदड़’ नृत्य के लिए। चंग की थाप, नगाड़े की धुन और मंजीरे के कर्णप्रिय तरन्नुम में पूरा नगर श्रृंगार रस में आकंठ डूब जाता है।
बड़कुलों से जलाई होली जब सुबह राख में परिवर्तित हुई तो दादी ने बुआ लोगों को और मुझे बुलाकर कहा- “चलो गणगौर की पिंडियाँ बना लो। टोकनियाँ मँगवा ली हैं, उनमें दूब बिछाकर पिंडियाँ रख दो। रोली, काजल, मेहँदी की बिंदी लगेंगी....जो भूलो कुछ तो पूछ लेना।”
संध्या बुआ, रजनी बुआ, उषा बुआ अपनी-अपनी पिंडियाँ बनाने लगीं। मैं अड़ गई- “मैं भी बनाऊँगी पिंडियाँ।”
“क्यों....तुझे बींद (वर) की कामना नहीं....शिव-सा गुणवान, रूपवान....”
“अगर मैं बनाऊँगी तो भैया भी बनाएगा। वह क्यों नहीं बनाता पिंडियाँ? वह क्यों नहीं गणगौर पूजता? क्या उसे नहीं चाहिए गौरी-सी बिणनी?”
बड़ी दादी पलंग पर लेटे –लेटे दाँत किटकिटाने लगीं- “अरी अपशगुनी.... भक्-भक् बोले जा रही है। लुगाई का जनम और तेवर ऐसे?”
अम्मा ने मेरा हाथ पकड़ा और तमककर बड़ी दादी को देखा। कहा कुछ नहीं लेकिन एक विद्रोह उनकी आँखों में सुलग उठा था। उन्होंने आहिस्ता से दादी से कहा- “अम्माजी, इसे जाने दें। नहीं बनाती पिंडियाँ तो न बनाए....मैं तो बना रही हूँ न।”
वे मुझे लेकर अपने कमरे में आ गईं। बाल सँवारकर मेरी चुटिया बाँधी, घाघरा चोली पहनाई फिर मेरे गालों को चूमकर कहा- “पायल, अपनी बात को हमेशा उन्हीं लोगों के सामने रखा करो जो उसे सुनें। अपने मोती-से अनमोल शब्दों को व्यर्थ मत करना।”
मैं अम्मा से लिपट गई। बूटे से कद की, दुर्बल देह की अम्मा भैया होने के टाइम पर सूज फूल कर डबलरोटी हो गई थीं। दर्द आने तो दो दिन पहले से ही शुरू हो गए थे। घर में डॉक्टरों का हुजूम खड़ा कर दिया था बाबा ने। सारे नौकर-चाकर हाथ बाँधे कोठी के दरवाज़े पर दादी के हुक्म की प्रतीक्षा में थे कि कब किस चीज़ की ज़रुरत पड़ जाए। दादी रात भर मंदिर में दीया जलाए, हाथ जोड़े प्रार्थना करती रही थीं।
दादी का मंदिर उनके कमरे की बगल में था। सुंदर-सा, छोटा-सा कृष्णजी का मंदिर। वे उनको भोग लगाए बिना और भागवत पाठ किए बिना जल की बूँद तक गले के नीचे नहीं उतारती थीं। आज उन्हें अपनी भक्ति का फल देखना था। घर का कोई प्राणी नहीं सोया था। रजनी बुआ और मैं तो अम्मा से ज़्यादा दादी की चिंता में थे।
वे सीधी बैठी प्रार्थना करती रही थीं, घंटों। बाबा दो-तीन बार मंदिर में आकर झाँक गए थे, फिर हॉल में चहलक़दमी करने लगे थे। अम्मा में ज़ब्त का माद्दा बहुत था। और कोई होता तो चीखों से कोठी भर देता पर अम्मा की दँतकड़ी बंध गई, लेकिन चीख नहीं निकली। मुँहअँधेरे प्रताप भवन भैया के रुदन की गूँज से भर उठा। दादी की प्रार्थना समाप्त हुई। अकड़ी कमर, सुन्न हुए घुटनों को आहिस्ता-आहिस्ता सहलाते हुए वे उठीं। चल नहीं पाईं ज़्यादा, वहीँ चौकी पर बैठ गईं। मुझे और रजनी बुआ को बुलाया- “थाली बजाओ दोनों जनीं।”
रजनी बुआ ने काँसे की थाली बजाई और मैं ठुमक-ठुमककर नाचने लगी। उषा बुआ ने थाल में मीठा परोसा और प्रताप भवन खुशी और मिठास से भर उठा। शाम तक कोठी के सहन में शहनाइयाँ बज उठीं। भैया होने का जश्न कोई मामूली न था। छोटी-मोटी शादी-सा जलसा हो रहा था। भैया है भी बहुत सुंदर.... उजला रंग, भोला-भाला मुखड़ा। “अम्मा, मुझे भैया से कोई दुश्मनी थोड़ी है लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि गणगौर की पिंडियाँ लड़कियों के ही ज़िम्मे क्यों आती हैं?”
अम्मा मुस्कुराई थीं- “तू खुद इसका उत्तर ढूँढ पायल।” खुद ही ढूँढना पड़ेगा। इन एहसासों को पहेली नहीं बनने देना है वरन उन चाबियों को ढूँढ निकालना है जो औरत की नियति की तमाम दराज़ें खोल डाले, उन तहखानों को टटोलना है जो दादी जैसी शख़्सियत में ताउम्र पैबिस्त रहे हैं। मैं जब अतीत की परतें हटाती हूँ तो ताज़ा रक़्त रिसता है....एक ख़ामोश दहशत....निरंतर डूबते जाने, जलते जाने, रिसते जाने का आंदोलित भय! हाँ....उन नंगी सच्चाइयों ने मेरे शरीर के पोर-पोर में जड़ें जमा ली हैं।
इस प्रताप भवन में बिताया कोई भी पल ऐसा नहीं जो घायल न हो....जो टीसता न हो। बड़ी दादी लगातार औरत होने का एहसास कराती रहीं....दादी प्रेम और बलिदान की मूरत बनकर उस एहसास को सौम्यता प्रदान करती रहीं....और अम्मा....ख़ामोश अंतर्द्वंद्व, आंदोलन और चुनौती को अपने अंदर अंकुरित कर मुझे सौंपती रहीं। मैंने उनकी इस उपज को स्वीकारा लेकिन दादी बड़ी गहराई से अपील करती रहीं....मैं उनके प्रेम में पगी सब कुछ तो भूले थी। उस विरोध के बावजूद भी मैं दादी की इच्छा के कारण पिंडियाँ बनाने में लग गई थी। एक सुकून था कि दादी संतुष्ट होंगी, सुकून इस बात का भी था कि इसका उत्तर मुझे ही खोजना है और यह अम्मा का सौंपा हुआ काम है।
मालवगढ़ आकंठ गणगौर उत्सव में डूबा था। लोकगीत हवाओं में घुल गए थे। तालाब, पनघट, गीतों के माधुर्य से चहक उठे थे। लड़कियों, बहुओं की हथेलियाँ हिना से रंगीन हो उन पर चित्रित फूल, कलश, चाँद, सूरज, चौपड़, स्वस्तिक का परिचय दे रही थीं और चैत्र लगते ही चैती तीज के दिन शोभायात्रा निकली। मैंने और रजनी बुआ ने ऊपरी मंज़िल के झरोखे से आदम़कद मूर्तियों में ईसर गणगौर की भव्य शोभायात्रा देखी। थिरकते, मचलते लोग, मंजीरे, खड़ताल की धुन....पूरी धरती मस्ती में भर उठी थी। प्रकृति भी अपने सूखे पत्तों के खड़ताल बजा हवा को बौराए दे रही थी। वसंत आगमन हो चुका था और वृक्षों, दरख़्तों में फूलों से श्रृंगार की होड़-सी मच गई थी।
बड़ी दादी की नर्स मारिया भी कुछ पल झरोखे के निकट आ खड़ी हुई। बहुत हँसमुख और नम्र स्वभाव की थी वो। बताने लगी- “हमारे गाँव में भी ऐसा ही होता है। होली के आसपास लोकगीतों पर हम खूब नाचते थे। कुल सत्ताइस झोपड़ियों का छोटा-सा गाँव, बिजली, पानी, सड़क से परिचय तक न था। सबके पास खेत तो थे पर जब खेतों में फसल तैयार हो जाती तो जंगली हाथी सब कुछ ख़त्म कर देते। फसल रौंद डालते, कई बार तो हमारी झोपड़ियाँ तक नेस्तनाबूद की हैं हाथियों ने।”
“फिर तुम कैसे नर्स बनीं मारिया?” मेरी जिज्ञासा पर मारिया हँसी- “पढ़कर, ट्रेनिंग लेकर। जर्मनों ने ऐसे बीहड़ गाँव में भी अपनी मिशनरी खोली है। शुरू में कुल दस विद्यार्थी थे, फिर आसपास के गाँवों से भी लड़के-लड़कियाँ आने लगे।”
“बड़ी मेहनत करनी पड़ी होगी?”
“बहुत ज़्यादा। बापू को तैयार करना ही मेहनत का काम था। उन्होंने मेरी शादी पड़ोस के गाँव में तय कर दी थी। मेरी इच्छा पढ़ने की थी तो बापू की डाँट भी खाई, मार भी। पर तैयार हो गए वे। शादी तो मुझे करना ही नहीं थी। नर्स बनना था, सेवा करनी थी असहायों की....जैसे जर्मन मिशनरी करती है।”
मैं अभिभूत थी मारिया की लगन से। अपना जीवन उत्सर्ग करने वाली ये देवमानवियाँ नमन करने योग्य लगीं।
“देखो....आंटी रो रही हैं।”
मेरे कान नीचे से आती आवाज़ों की ओर गए। बड़ी दादी रो-रोकर बड़े बाबा से कह रही थीं- “कब से माँग रही हूँ नींबू का शरबत....लेकिन उधर पहुँच गई रजनी, पायल के बीच झरोखे से दीदे मटकाने।”
मारिया तेज़ी से उनके पास पहुँच गई- “आंटी, नीबू मना है आपको....जोड़ दुखेंगे बदन के....ग्लूकोज़ का पानी रखकर तो आई थी मैं।”
“हाँ....हाँ....ग्लूकोज़ पिला-पिलाकर मार डाल मुझे।” और वे हिचक-हिचककर रोने लगीं। मारिया उनकी पीठ सहलाती रही। जब उनका रोना थमा तो चम्मच से उन्हें ग्लूकोज़ पिलाने लगी।
दादी ने मारिया के लिए गणगौर का मिष्ठान्न परोसा लेकिन मारिया ने इंकार कर दिया- “नहीं छोटी आंटी....मुझसे नहीं खाया जाएगा। आंटी भी तो यही सब खाना चाहती हैं लेकिन उनकी बीमारी....”
दादी ने हुलसकर मारिया को गले से लगा लिया और उसका माथा चूम लिया। बड़े आग्रहपूर्वक उसके मुँह में मिठाई का टुकड़ा जब दादी ने रखा तो देखा उसकी आँखें अश्रुपूर्ण थीं। फिर दादी ने भी कुछ नहीं खाया। मुँह जुठार कर उठ गईं।
रात को मारिया हमारे कमरे में आई। माहौल से उत्सव की रौनक धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। सड़कें निपट सुनसान थीं। बगीचे में रातरानी महक रही थी। रजनी बुआ की आँखें झपकने लगीं लेकिन मारिया व्याकुल थी।
“आंटी का दुःख देखा नहीं जाता पायल बाई।”
वह मुझे ‘बाई’ कहती। राजस्थानी परंपरा में बाई सम्मान सूचक शब्द है। पर मुझे अच्छा नहीं लगता। उसका तर्क था- “आप मना क्यों करती हैं? मीरा बाई भी तो थी आपके जात की....इतनी बड़ी पोयेट।”
उसके हाथों में बाइबिल थी।
“क्या लिखा है इसमें? पढ़कर सुनाओ।”
“लिखा है कोढ़ियों और नारियों पर समान दया की भावना रखो।”
“इसीलिए तुम बड़ी दादी पर दया करती हो।”
वह फिस्स से हँस दी- “मैं क्या दया करूँगी, प्रभु यीशु दया करेगा....ईश्वर सबकी रक्षा करता है। उसने मेरी भी रक्षा की।”
“तुम्हारी रक्षा!!” रजनी बुआ ने आश्चर्य से पूछा।
“हाँ, जब मैं पढ़ने जाने लगी तो वह राक्षस....हाँ, राक्षस ही था वह जिसके संग बापू ने मेरी शादी करने का सोचा था लेकिन मेरी ज़िद्द के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए थे लेकिन थॉमस ने नहीं टेके थे। मुझसे शादी न होना उसने अपना अपमान समझा था। एक दिन मिशनरी अस्पताल जाते हुए जंगल के बीचोंबीच सर्पिल पगडंडी पर वह मेरा रास्ता रोककर खड़ा हो गया- “मुझसे शादी के लिए इंकार क्यों किया?” उसने कड़ककर पूछा।
“क्योंकि मैं नर्स बनना चाहती हूँ....सेवा में जीवन लगाना चाहती हूँ।”
“और मैं ख़ामोश बैठा रहूँ....तेरे बापू ने मुझसे शादी का वादा किया था, अब साला मुकर गया।”
“गाली मत दो थॉमस, चले जाओ यहाँ से। मैंने अपना रास्ता चुन लिया है।” मैंने उससे छुटकारा पाना चाहा तो वह अट्टहास कर उठा। सहसा मैंने देखा उसके चेहरे पर विकृत भाव पसरता जा रहा है। उसकी हथेलियाँ आक्रामक हो उठीं, आँखें रक्तवर्ण....
“छोड़ दूँ तुझे और अपने अपमान से झुलसता रहूँ? नहीं, तुझे भी अपमान में झुलसना होगा। तुझे भी मुँह दिखाने में शर्म आएगी।” कहता हुआ वह मेरी ओर झपटा और मुझ पर दाँतों, नाखूनों की खरौंचे डालता हुआ मेरा ब्लाउज़ फाड़ने लगा। तभी जर्मन डॉक्टर वहाँ से गुज़रे....वे ऑक्सीज़न सिलेंडर लेने कार से शहर जा रहे थे....उन्होंने थॉमस की इस वहशियाना हरक़त पर उसे दो तमाचे जड़े और मुझसे कार में बैठने को कहा। बदले में उन्हें भी थॉमस के हाथों अपने बाल नुचवाने पड़े। थॉमस ने उनका कॉलर इतनी ज़ोर से खींचा कि आगे के बटन टूट गए।
मैं रास्ते भर रोती रही। किसे दोष दूँ पायल बाई! थॉमस की ज़लील हरक़त से क्या पूरे पुरुष समाज को दोष दूँ? फिर डॉक्टर की इंसानियत कहाँ जाएगी जिसने मुझे बचाया। ईसाई धर्म कहता है कि ईश्वर ने स्त्री बनाने में उस मिट्टी को नहीं लगाया जो पुरुष बनाने में लगाई थी बल्कि उसने आदम के शरीर के मांसल हिस्से से ईव को रचा था। इसीलिए तो ईव आदम की पूरक बनी। उसका एकाकीपन दूर करने का साधन....फिर भी मुझे अपने औरत होने पर अफ़सोस नहीं।”
मैं मारिया के इस तर्क पर चकित थी। यह साधारण-सी, साँवली-सी, अनाकर्षक चेहरे वाली आदिवासी महिला इस कद़र असाधारण। यह महिला बड़ी दादी की पीड़ाओं से पीड़ित है जबकि उनकी तीनों लड़कियाँ- मेरी बुआएँ उनके पास फटकती तक नहीं। तीनों बुआओं ने अपनी माँ को पलंग के दायरे में कैद मान लिया है। रजनी बुआ को गहरी नींद सता रही है, जबकि मारिया की आँखें झपक भी नहीं रही हैं।
“सो जाओ पायल बाई....अब मैं थोड़ी देर प्रेयर करूँगी....प्रेयर में बड़ी शक्ति होती है। वह हममें आत्मविश्वास भी जगाती है। मेरे बापू ने मुझे पढ़ाया, नर्स बनाया और माँ ने प्रेयर करना सिखाया। प्रेयर करते-करते मेरी माँ बड़ी शांति से मरी। सारा गाँव उनकी मौत पर नतमस्तक था....सोते-सोते रात के किसी प्रहर में ही अंतिम साँस ली उसने। न वह बीमार थी, न उसे साँप-बिच्छू ने ही काटा था। उसे तो देवदूत उठाकर ले गए।”
“और तुम्हारे बापू?”
“बापू उसी झोपड़ी में रहते हैं। मैं उन्हें पैसे भेजती हूँ....अब तो वे मिशनरी अस्पताल के रोगियों के सिरहाने बैठकर उन्हें थपकियाँ देकर सुलाते हैं। बापू की उँगलियों में जादू है, मिनटों में नींद आ जाती है।”
मारिया के बापू की उँगलियाँ मानो तानपुरा हों....हलका-हलका नशीला संगीत गुँजाती जिनकी तरन्नुम में अपने रोगों से जूझता असहाय प्राणी सपनों की बाँहों में खो-सा जाता होगा।
सुबह जब मैं बाथरूम की ओर जा रही थी और बाबा के टहलने जाने से दादी का कमरा भी अँगड़ाई ले रहा था तो मैंने देखा मारिया बड़ी दादी के पायताने करवट लिए सो रही है और बड़े बाबा कमरे के सामने गलियारे में तख़त पर लेटे खिड़की की ओर टकटकी बाँधे हैं। पन्ना ने मेरे नहाने के पानी में गुलाबजल डालकर गुलाब की पंखुड़ियाँ भी तैरा दी थीं। मुझे वे पंखुड़ियाँ नहाते हुए खूब चुभीं, मारिया के आगे अपना ऐश्वर्य उपहासजनक प्रतीत हुआ।
होश सम्हालते ही अगर किसी व्यक्ति को मैंने ख़ामोश, विरक्त और गुमसुम देखा है तो वे बड़े बाबा थे। वैसे भी वे अपना बड़प्पन नहीं निभा पाए.... सब कुछ बाबा ने ही सम्हाला....ज़मीन, जायदाद....खेत-खलिहान....ख़ानदान.... सब कुछ बाबा और दादी के ज़िम्मे था। बड़े बाबा के स्वभाव का सीधापन और बड़ी दादी की बीमारी दोनों ने उन्हें दीमक-सा चाट लिया था।
वे गलियारे में तख़त पर अक्सर रात बिताते या फिर अपने स्टडी रूम में मोटी किताबों में उलझे रहते और लगातार कुछ लिखते रहते। वे लिखते....बड़ी दादी छीजतीं....वे ज़िंदगी को थामने की कोशिश में लगे रहते और बड़ी दादी के हाथ से ज़िंदगी फिसलती जाती। ज्यों मुट्ठी में दबी रेत आहिस्ता-आहिस्ता फिसलती रहती है, फिर मुट्ठी ख़ाली हो जाती है। बड़ी दादी ख़ाली मुट्ठी से घबराती थीं इसीलिए मारिया पर झल्लाती रहतीं। लेकिन उनकी झल्लाहट मारिया की तड़प को कई गुना बढ़ा देती है यह बड़ी दादी क्यों नहीं समझ पातीं।
एक दिन बड़े बाबा से मिलने कोई साधू आया। लंबी दाढ़ी, सिर पर जटाएँ, गले में रुद्राक्ष की माला और माथे पर त्रिपुंड....उनके आते ही बड़े बाबा ने कमरा बंद कर लिया और घंटों नहीं खोला लेकिन उनके कमरे की खिड़की से निकलता चिलम का धुआँ दादी को बेचैन करता रहा।
“इस घर में साधू फ़क़ीरों का क्या काम?”
“मालकिन....आप तो खाने का परोसा सोचो। पूड़ी आलू की सब्ज़ी और हलवा मँगवाया है सूजी का बड़े मालिक ने।”
महाराजिन ने दादी को बताया और पल्लू में मुँह छुपाकर हँसी। अब साधू फ़क़ीर का मन हलवा-पूड़ी खाने को हो तो हम गिरस्ती वालों का क्या हाल हो?
लेकिन दादी सोच में पड़ गई....कहीं जेठजी संन्यास तो नहीं ले रहे....भले ही घर के चार कामों में हाथ नहीं बँटाते लेकिन उनकी मौजूदगी का साया ही काफ़ी है घर के लिए। कम-से-कम बड़ों की मौजूदगी तो बनी है। और जब दादी ने बाबा से यह कहा तो बाबा ठहाका लगाने लगे- “तुम भी महारानी कबूतरी-सी सहम जाती हो बात-बात पर....अरे भाभी सा के बीमार रहने पर भाई सा विरक्त नहीं होंगे क्या? वो तो उस साधू की लँगोटी तक धोते हैं अपने हाथ से....हाँ, मैंने खुद देखा है।”
“कब? ये तो पहली बार आया है घर।”
“तो क्या हुआ? भाई सा जाते हैं उसके घर बिलानागा, कुएँ के पास ही तो कुटिया है इसकी। बनास नदी जाते हुए जो दाहिने हाथ पर कुआँ पड़ता है।”
दादी ने भी देखी है यह कुटिया कई बार नदी की ओर जाते हुए। कुटिया की गोबर लिपी दीवारों पर कचरी, फूट की बेलें छाई हैं और कुएँ के नज़दीक ही एक धूनी भी जलती रहती है। कुएँ से पानी भरने के लिए आई हुई पनिहारिनें कभी सत्तू, कभी बाजरे की रोटी और गुड़ साधू के लिए लाती रहती हैं। बदले में वह उनके माथे पर भभूत लगाकर आशीर्वाद देता है।
इलाक़े भर में प्रसिद्ध है कि उसके भभूत का आशीर्वाद फलित होता है। वैसे साधू है औघड़दानी....शंकरजी के लिंग के ऊपर रोटी रखकर खाता है, शराब पीता है और साथ-ही-साथ पास बैठे कुत्ते को भी खिलाता जाता है। ऐसे अघोरी का घर में आना दादी को नागवार लगता पर करें भी क्या। बड़े बाबा से कहने की हिम्मत ही नहीं, वैसे भी गृहस्थी में उनका दख़ल न के बराबर है।
दादी ही एकमात्र वह व्यक्ति है जिन्होंने पूरी गृहस्थी ओढ़ रखी है। किसी का ब्याह हो, मुंडन हो, कनछेदन हो, नए घर में प्रवेश, भूमि पूजा हर नेग दस्तूर दादी को बिना भूल-चूक याद रहता। दादी मानो वो समंदर थीं जिसकी लहरें भाप बनकर बादल के रूप में आकाश में छा जातीं और फिर बरसकर सबको तृप्त करतीं। बुआओं की हर फ़रमाइश दादी से और दादी का सदाव्रत हमेशा खुला रहता।
तभी तो ज़िद्द कर बैठी थी मैं। अम्मा ने मुझे शमीज़ पर नींबू रंग की सुंदर फ्रॉक पहनाई थी जिसके गले और बाँहों में शटल की लेस और मोती जड़े थे। हफ्ते भर बाद दादी, अम्मा, उषा बुआ, संध्या बुआ समेत ख़ानदान के क़रीब पचास लोग सवा महीने की वृंदावन यात्रा पर जा रहे हैं। दादी के गुरूजी मथुरा से इस तीर्थ यात्रा का नेतृत्व करेंगे। कुल मिलाकर पाँच सौ यात्री तो होंगे। खूब मज़ा आएगा। “मैं भी चलूँगी दादी।”
“ऊब जाओगी पायल बिट्टो....सवा महीने कुछ कम नहीं होते। तपस्या है पूरी....उधर बच्चों का न सधेगा।”
“पर मैं जाऊँगी....तंग नहीं करूँगी दादी आपको।”
दादी नहीं मानीं। उनका तर्क सही था। तीर्थ यात्रा कष्टों से भरी होती है....मेरी वयस के बच्चे बाधक ही तो होंगे उनके....लेकिन कोई भी तर्क मानने को मैं तैयार न थी। बस, जाना है मुझे....रजनी बुआ न जाएँ, उषा बुआ और संध्या बुआ तो जा रही हैं। घर में बचेगा कौन....बड़ी दादी....मुझे नहीं रहना बड़ी दादी के साथ।
एकादशी के दिन यात्रा शुरू होने वाली थी। मेहमानों से प्रताप भवन खचाखच भरा था। पूरी तैयारी हो चुकी थी और मैं आसन पाटी लिए ऊपर की मंज़िल में पड़ी थी। रात दादी आई....हाथ में मखानों की खीर से भरा चाँदी का कटोरा था- “ले, जीम ले ज़िद्दन और चल, सूटकेस में कपड़े रखवा ले अपनी अम्मा से।”
“क्याऽऽऽ”....मैं खुशी से लगभग चीखती हुई सी दादी के गले से झूल गई और उनके गालों को चूम डाला- “अरी, मार थूक लिभड़ाये दे रही है। चल, चल, बहुत हो गया लाड़।”
और प्यार से मेरे मुँह में खीर की चम्मच रख दी- “ईश्वर परम कल्याणकारी है, तेरी यात्रा में उनकी मर्ज़ी है तभी मुझे संकेत मिला।” कहकर उन्होंने श्रृद्धा से अपने मुरली मनोहर को याद किया। मैं परम तृप्ति से खीर खाने लगी।
पता चला रजनी बुआ भी जा रही है। बाबा नहीं जाएँगे। पार्टी के बहुत ज़रूरी कार्यक्रम हैं। फिर उनका उद्देश्य भारत की आज़ादी है और वे तन-मन-धन से उसी में लगे हैं। रात्रि जागरण से उनकी आँखें सूजी थीं। दादी उनके सिर में तेल ठोंक रही थीं- “मैंने महाराजिन को सब समझा दिया है। देव बाबा की मड़िया बिलानागा खाना जाएगा। तुम चिंता नहीं करना और अपना ख़याल रखना।” बाबा ने तरलाई युक्त आँखों से अपनी मालविका को देखा। तीर्थ यात्रा के तेज से उनका चेहरा दमक रहा था। बालों का जुड़ाबाँधा था फिर भी कुछ लटें माथे पर बिखर आई थीं।
“सवा महीने बाद लौटोगी, इस बार अमावस सवा महीने की पड़ रही है न।”
पहले तो दादी कुछ समझी नहीं और जब बात समझ में आई तो शरमा गईं। बाबा ने उनका चाँद-सा चेहरा हथेलियों में भर लिया था। प्रताप भवन के बुर्ज पर बैठे मयूर कूकने लगे थे।
दादीका घर से बाहर जाना कोई मामूली बात न थी। माली, दरबान, महाराज, महाराजिन, नौकर-चाकर, दास-दासियाँ सब बार-बार बुलाए गए। मारिया को अलग ताक़ीद की गई कि वह एक मिनट को भी बड़ी दादी को अकेला न छोड़े। मारिया खुद अपने गाँव जाना चाहती थी पर दादी के लौटने के बाद ही उसे छुट्टी मिल सकती थी।
तारों की छाँव में ही जीपों का काफ़िला चल पड़ा स्टेशन की ओर। मैं और रजनी बुआ तो खुशी, उत्तेजना और जोश के सागर में गोते लगा रहे थे। तीसरे दिन हम सब मथुरा पहुँचे जहाँ गुरूजी के निर्देशन में यात्रा आरंभ होनी थी। मैं आँखें फाड़-फाड़कर देख रही थी उस भव्य इंतज़ाम को। ट्रकों में बड़े-बड़े बर्तन, चूल्हा, अँगीठी....कनस्तरों में खाने का सामान, बोरों में भरी सब्ज़ियाँ रसोइयों के सुपुर्द कर दी गई थीं।
बड़े-बड़े तंबू, गद्दे, चादर, तकिए, फोल्डिंग पलंग, जेनरेटर....सवा महीनों तक पाँच सौ यात्रियों के लिए रोज़मर्रा का सारा सामान गुरूजी की देखरेख में जुटाया गया था। मेरे लिए तो मानो एक दूसरी ही दुनिया का हवाला था ये। गुरूजी चौकी पर बैठे थे। पैरों में खड़ाऊँ। दादी ने उनके पैरों में शीश नवाया- “कल्याणी भव। देवियों की नेता तुम हो। सभी देवियों का सारा भार तुम्हारे ज़िम्मे।”
दादी गद्गद- “इतना बड़ा भार उठा पाऊँगी मैं?”
“तुम कल्याणी हो देवी मालविका, उठो, ठीक नौ बजे प्रस्थान मुहूर्त है।”
काफ़िला चल पड़ा। राजपथ के दोनों ओर घने जंगल। आम, आँवला, नीम, कटहल। कटहल के झाड़ पर बंदर बैठे थे। मैंने उनकी तस्वीर खींच ली। मैंने राजस्थानी हथकरघे का काँच जड़ा कपड़े का बैग कंधे सेलटकाया हुआ था जिसमें दूरबीन, कैमरा, नोटबुक, पेन रखे थे। ऐसा ही बैग रजनी बुआ के कंधे पर भी था लेकिन उसमें कैमरा न था। हम दोनों के बीच साझा कैमरा था....हर रील आधी उनकी, आधी मेरी। वे तरह-तरह के पोज़ में फोटो खिंचवातीं। मैं प्राकृतिक दृश्यों की तस्वीरें लेती- तो वे कहतीं- “रील बरबाद कर रही हो तुम।” उनके बैग में चिकनी सुपारियों की थैली भी थी।
हर वक़्त उनके मुँह में चिकनी सुपारी का टुकड़ा दबा रहता। शाम ढलने को थी। जंगल में ही तंबू गाड़े गए। गद्दे, चादरें बिछे....जेनरेटर से सभी तंबुओं में बिजली जल उठी। दूर अलग-थलग रसोइए ने चूल्हा जलाया और देखते ही देखते भोजन तैयार होने लगा। गुरूजी के तंबू में उन्होंने कुछ ख़ास लोगों को बुलाया था। दादी और अम्मा भी थीं। मैं अम्मा के साथ ही बैठी लेकिन गुरूजी ज़राभी नाराज़ नहीं हुए। प्रवचन शुरू हुआ जिसकी गूँज माइक के द्वारा अन्य तंबुओं तक भी पहुँची।
मेरे जीवन की यह ऐसी रात थी जिसे भूल पाना कठिन था। चतुर्दशी का चाँद निरभ्र आकाश में इतना शुभ्र और निर्मल तो कभी दिखा नहीं। ओर-छोर जंगल ही जंगल। पेड़ों पर कभी-कभार पंख फड़फड़ाने की आवाज़ सुनाई पड़ जाती।
प्रवचन, भोजन और प्रार्थना के बाद सब गहरी नींद में सोए थे। लेकिन मैं जंगली सौंदर्य में पलकें भी नहीं झपका रही थी। कभी इस डाल से उस डाल तक मोर अपनी लंबी पूँछ लेकर उड़ता। कभी नीली चिड़ियाँ अदृश्य-सी अपने नन्हे-नन्हे पर फड़फड़ातीं। अचानक सियारोंका रुदन सुन मैं अम्मा से लिपटकर सोने का प्रयास करने लगी। चाँदनी भी फीकी हो चली थी।
तड़के सुबह चुस्त-दुरुस्त हम पुनः यात्रा पर चल पड़े। मथुरा से एक पंडितजी भी आए थे जो उधर कॉलेज में संस्कृत पढ़ाते थे। बड़े फख्र से वे रास्ते भर अंग्रेज़ अफ़सर के किस्से सुनाते रहे जिनकी बेटियों को वे संस्कृत पढ़ाते थे। वृंदावन के बारे में उन्होंने बताया कि ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसके विषय में बहुत विस्तार से लिखा है। प्राचीन काल में महाराजा केदार की पुत्री थी वृंदा।
उसने श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत हो उन्हें पति रूप में पाने की तपस्या इन्हीं जंगलों में की थी। तभी से इसका नाम वृंदावन पड़ा। वृंदा देवी यहाँ की अधिष्ठात्री देवी भी हैं। राधा कृष्ण की जुगल जोड़ी इन्हीं तमाल वृक्षों के नीचे ही तो प्रेम की अद्भुत क्रीड़ाएँ करती थी। रास्ते में चलते हुए जितने मंदिर मिलते थे सभी के दर्शनों के लिए हमें रुकना पड़ता था। मैं मंदिरों में भक्तिभाव से कभी नहीं गई बल्कि उसके स्थापत्य की बारीकियों को देखने-परखने ही जाती थी। जितना बन सका तस्वीरें लीं। अम्मा जब चढ़ाने को पैसे देतीं तो मैं चुपचाप रजनी बुआ की हथेली में सरका देती....न जाने कहाँ की विद्रोही अक्खड़ आत्मा थी मेरी।
कुंड स्नान के लिए सारा काफ़िला रुका। दादी ने दान-दक्षिणा देने के लिए ख़ासी रेजगारी, चाँदी के रुपए वगैरह बाँधकर अलग-अलग बटुओं में रखे थे। मछ कुंड से बिछिया दान करते हैं।लौह कुंड में लोहे से बनी वस्तुएँ....लव कुंड में भी दान-दक्षिणा का महत्व है। महाराजजी ने प्रथम रात्रि प्रवचन में ही संकेत दे दिया था, कि कोई भी तीर्थयात्री, बाल गोपाल जंगल की फूल-पत्तियाँ नहीं तोड़ेंगे, लड़ाई-झगड़ा नहीं करेंगे, साबुन तेल नहीं लगाएँगे। सो मैं तो खुश थी।
इन सब चीज़ों से मुझे भी परहेज़ था। हाँ, साबुन का न लगाना अखर गया। दादी मुल्तानी मिट्टी लाई थीं। उसी को साबुन मान लिया था। कुंडों में स्नान तरोताज़ा कर देता था। फिर सूर्य को जल अंजलि चढ़ाई जाती और कीर्तन होता।
तमाम मंदिरों के दर्शन, परिक्रमा, कुंड स्नान आदि करते हुए, रात में जंगलों में विश्राम करते हुए हम डीग पहुँचे जो किसी समय भगवान कृष्ण की लीलाभूमि था। चौरासी कोस की ब्रजयात्रा के समापन का यह पूर्व पड़ाव था। गुरूजी ने सबको एकत्रित करके प्रवचन दिया और यात्रा समाप्ति की घोषणा की। दादी गुरूजी के चरणों पर गिर पड़ीं- “स्वामीजी, आपके आशीर्वाद से ब्रजयात्रा, गोबर्धन परिक्रमा निर्विघ्न निपट गई। दया बनाए रखें।”
“तुम तो कल्याणी हो देवी मालविका। मैं तुम्हारे हृदय में संपूर्ण मानवता का सागर लहराता देख रहा हूँ। स्वाति नक्षत्र की बूँद सीपी का मर्म बड़ी कठोरता से भेदकर मोती बननेको उसमें समा जाती है। यह संसार का नियम है साध्वी। किंतु तुम बड़ी कोमलता से मुक्ता बनी चली जाती हो....मुक्ता बनना कोई सहज कार्य नहीं है।” दादी की आँखों में मानो मुक्ता लड़ियाँ पिघल-पिघलकर टपकने लगीं। उन्होंने गुरूजी के चरण मानो आँसुओं से पखार डाले।
उस अंतिम रात्रि में गुरूजी ने अपने निजी कोष सेहम सबको भोजन कराया। महाप्रसाद में मिले बेसन के लड्डुओं का वैसा स्वाद फिर दुबारा नहीं मिला।
मैं अपने आपको अक्खड़ और विद्रोही मानती हूँ। फिर क्या बात है किसब कुछ करने का मन करता है। सारे तीज-त्यौहार, तीर्थयात्रा, दान यज्ञ....क्यों मोहते हैं इतना जबकि इनके समापन पर मैं हमेशा सोचती रही....नहीं, मैं आस्तिक नहीं हूँ....ईश्वर पर मेरा विश्वास नहीं। फिर कौन सी शक्ति कराती है यह सब? मन की जिज्ञासा क्यों कुरेद-कुरेदकर अपना शमन चाहती हैं। शायद इसी कुरेद से मजबूर हो मैंने दादी से पूछा था-
“दादी, आपको गुरूजी ने पहले सागर कहा, फिर सीप और मोती। ये विरोधी उपमाएँ समझ में नहीं आईं।”
दादी मुस्कुराती रहीं। शायद इसका जवाब उनके पास न था। मेरी जिज्ञासा शांत की अम्मा ने- जानती हो पायल सागर में सीपियाँ होती हैं जो मोती पैदा करती हैं। अगर सागर न होतो सीपियों का जीवन भी असंभव है। तुम्हारी दादी का हृदय वह सीप है जो सारे सागर को अपने में समेटे है....है न अनहोनी बात....लेकिन गुरूजी का यही तात्पर्य था। अब साधू-संतों की बातें होती तो गूढ़ हैं। समझना मुश्किल।
मैं अम्मा के तर्क पर चकित थी। अगर अम्मा को मौका मिला होता तो वे एक काबिल प्रोफ़ेसर, लैक्चरर तो ज़रूर हुई होतीं।
वृंदावन से विदाई लेते हुए जाने क्यों मन उदास था। क्या यह उदासी बरसाने की राधा की थी जो कृष्ण के द्वारिका जाने पर उदास, बेचैनथी? या कृष्ण की जो राधा से बिछुड़ते हुए स्वयं राधामय हो उठे थे।
मालवगढ़ लौटकर मारिया को बेचैन पाया। उसके बापू का ख़त था कि वे सख़्त बीमार हैं। इधर बाबा अलग खौल रहे थे। उनके एक साथी को पुजारी के वेश में नदी किनारे अंग्रेजों ने पकड़ लिया था और जब उससे भेद नहीं उगलवा पाए थे तो चौराहे के बरगद पर उसे फाँसी दे दी थी। बाबा फूट-फूटकर रोए थे- “महीनों उस व्यक्ति ने जंगलों की ख़ाक़ छानी थी। रातों की नींद हराम की थी। कई-कई बार बारूद से उसकी उँगलियाँ जली थी पर उसने उफ़ भी नहीं की। वह शहीद हो गया....देश को आज़ाद कराने का कण भर का प्रयास।”
दादी ख़ामोश बैठी रही थीं। जब बाबा चुप हुए तो उन्हें ठंडे पानी का गिलास थमाया और चुपचाप अपने कमरे के बाजू में कृष्णजी के मंदिर में दिया जलाकर उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की....मन-ही-मन शिकायत भी की होगी कि मैंतो तुम्हारे दर्शनों के लिए द्वारका, ब्रज की गलियाँ मापती रही, गोवर्धन परिक्रमा करती रही और तुमने हमारे ही एक साथी के साथ ऐसा अन्याय किया।
शायद जवाब भी पाया हो कि आज़ादी के दीवानों के साथ कौन अन्याय कर सकता है? उस रात बाबा के साथ-साथ दादी भी निराहार सोईं। मारिया की हिम्मत नहीं पड़ी छुट्टियाँ माँगने की। लेकिन अगले दिन भोर होते ही दादी ने रेलवे टिकट के लिए नौकर को भेज दिया और मारिया से तैयारी करने को कहा। बड़ी दादी की तबियत में कुछ सुधार नज़र आ रहा था। मारिया ने उनके बाल धो दिए थे और वे पलंग से टिकी वृंदावन के मंदिरों का प्रसाद खा रही थीं। दादी उन्हें मुख़्तसर में यात्रा के किस्से सुना रही थीं।
मारिया के जाते ही बड़ी दादी का सारा काम दादी के ज़िम्मे आ गया। कंचन उनका काम करने में नाक-भौं सिकोड़ती थी। जसोदा तो कनबहरी लादे रहती। बुलाने पर ‘आती हूँ’ ज़रूर कहती पर घंटों गायब रहती और पन्ना पंद्रह-सोलह साल की खिलंदड़ी किसी काम को गंभीरता से नहीं लेती थी। उषा बुआ बड़ी दादी को सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना खिला देतीं और संध्या बुआ रात का लेकिन दवाई के लिए, दर्द और तकलीफ़ में दादी के नाम की गुहार लगाती।
अलबत्ता एक नौकरानी मारिया के एवज़ बुला ली गई थी पर दादी को उसका पहनावा भाता नहीं था। भड़कीले रंग का चोली घाघरा, ओढ़नी सिर परतो रहती पर पूरी की पूरी पीठ के ऊपर पड़ी रहती। दोनों छातियाँ आधी-आधी चोली के अंदर बाकी बाहर। वैसे यहराजस्थान का ख़ास पहनावा था। घूंघट के बाबजूद ओढ़नी छाती पर नहीं रहती। दादी ने समझाया- “देखो, मर्दों का आना-जाना होता है। तुम ओढ़नी ज़रा ढंग से लिया करो।”
नौकरानी फिस्स से हँस दी थी- “माई, मर्द देखें तब न।”
दादी ने उसे फौरन रुख़सत किया। ऐसी निर्लज्ज का सेवा चाकरी में ध्यान रमेगा?
कई बार ऐसी औरतों को दादी ने साधू के कुएँ पर अपना घाघरा-चोली उतारकर धोते देखा है। तब ये नंगे बदन पर ओढ़नी लपेट लेती हैं और घाघरा-चोली धोकर रेत पर सूखने के लिए फैला देती हैं। मर्द आते-जाते इनकी ओर पलटकर भी नहीं देखते। साधू तो खर्राटे भरता चटाई पर लंबा चित्त पड़ा रहता है। जब तक कपड़े सूखते ये औरतें आपस में सिर जोड़कर सुरीले गाने गातीं।
जिनमें रेगिस्तान के ऊँटों का काफ़िला, रेत के ढूह, सपाट चट्टानें, बबूल, कीकर और भटकटैया की झाड़ियाँ, उनमें खिले बैंगनी फूल और खुश्क, रेतीले मैदानों का ज़िक्र होता। उन गानों में सजनी का साजन उनकी आँखों के सामने कुदाल चला रहा है, चट्टानें तोड़ रहा है और वे बेचैन हैं- “साजन आओ....मिलकर सत्तू खाएँ। लेकिन सत्तू माँडे किससे? यहाँ तो रेत ही रेत है, पानी का निशाँ तक नहीं।
रात भर पपीहा टेरता है- पी कहाँ, पी कहाँ? टिटहरी भी उसी की खोज में अपने शुष्क गले से पुकारती है- टिटीहट, टिटीहट।” अम्मा कहती हैं प्यासे को पानी ज़रूर पिलाना चाहिए नहीं तो पपीहा या टिटहरी का जनम मिलता है।
सावन लग चुका है। कभी बादल छा जाते हैं, कभी हलके बरसकर रुख़सत हो जाते हैं। चिलचिलाती धूप में सपेरे साँपों की पिटारी लेकर निकले हैं। कल नागपंचमी जो है। सपेरों के चीकट झोलों में बीन है। ये झोले इतने गहरे होते हैं कि जो कुछ दो, सब उस सुरंग में समाता जाता है। प्रताप भवन की ड्योढ़ी पर जब बीन बजी तो दादी ने नारियल की नरैटी में दूध भरा और पुराने कपड़े दरबान के हाथ सपेरे के लिए भेजे।
सपेरा बीन बजा-बजाकर नाग का फन काढ़ रहा था, उसके पैरों में घुँघरू बँधे थे। सपेरन ढोल बजा रही थी। ऐसा लगता मानो बरसात अब होने ही वाली है, ढोल बिल्कुल बादल की गर्ज़न-तर्जन करता बजता। घंटे भर के इस सुरीले समाँ के बाद सपेरों के जाते ही सन्नाटा-सा छा गया। अंदर से उषा बुआ की चीख सन्नाटे को तोड़ रही थी। सभी को पता था क्या होने वाला है।
पुश्तान पुश्तों से प्रताप भवन में एक साँप भी रहता था। जो ऐन नागपंचमी के दिन कोठी के अहाते की दीवार पर रेंगता था। लंबा...चितकबरा...बूढ़ा साँप...सब अपनी-अपनी खिड़कियों, झरोखों से उसके दर्शन करते। बिल से बाहर निकलते ही वह पाखाना करना शुरू कर देता। अजीब तरह की चिर्-चिर् की आवाज़ होती और उसकी जीभ लपलपाती रहती। यह साँप कोठी की स्त्रियों का शाप था ऐसा अम्मा कहती थीं। उनका कहना था कि पुश्तान पुश्तों से इस कोठी की बहुएँ, बेटिएँ न कभी सुखी रहेंगी, न रही हैं।
क्या मारिया पर भी साँप का शाप फलीभूत हो रहा है? लेकिन खुश लौटी है मारिया। उसके साँवले सलोने चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव व्याप्त है। पूरे मुखड़े पर उसके दाँत ही हैं जो आकर्षक हैं, मोती-से सफ़ेद...बेहद आकर्षक हँसी...जैसे ग्रेनाइट की चट्टान पर दुग्ध धार का सोता फूट पड़ा हो।
बड़ी दादी का बदन टोहकर, दवा-दारु से निपटकर मारिया हमारे कमरे में आई। तब तक सड़क पर लैंप पोस्ट के उज्ज्वल दायरे फैल चुके थे। हवा रुक-रूककर चल रही थी लेकिन ठंडक थी। दूर सन्नाटे को तोड़ता किसी अंग्रेज़ का घोड़ा अपनी टाप छोड़ता निकल गया...पीछे-पीछे ऊँटों का बलबलाना.....नीम की ताज़ी टूटी डालियों की तुर्श कड़वी गंध...
\"कैसे हैं तुम्हारे बापू मारिया।\"
\"बापू कमज़ोर हो गए हैं पायल बाई। अब कोई उधर टोकने वाला तो है नहीं। जब मनचाहा खा लिया, नहीं तो लेट गए भूखे ही। लेकिन अब थॉमस खाना बना देता है।\"
\"थॉमस।\" मैं चौंक पड़ी- \"वही, तुम्हारा मंगेतर?\"
\"हाँ, वह मिशनरी अस्पताल में कंपाउंडर हो गया है। शादी भी नहीं की उसने। इस बार मेरे से बोला कि जब तू नर्स हो गई मारिया तो मुझे तो कंपाउंडर बनना ही चाहिए। पायल बाई...उस दिन का उसका वो ख़ौफ़नाक अटैक एक जुनून ही था सच्चे प्यार का। मुझे पाने की एक दहशतनाक़ कोशिश.....\"
मारिया की आँखें झुकीं और उनमें से दो बूँदें चादर पर चू पड़ीं।
\"एक बेटे की तरह थॉमस बापू का ख़याल रख रहा है। कहता है- \'बापू, तुम मेरी मारिया के बापू यानी मेरे बापू। तुम्हारी सारी ज़िम्मेवारी मेरी।\' \"
\"तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं उससे? वह तुम्हें कितना अधिक चाहता है।\" रजनी बुआ बोलीं तो मारिया के हाथ कानों तक पहुँच गए- \"नहीं.....नहीं.....मैंने प्रभु यीशु को वचन दिया है लाचार, असहाय व्यक्तियों की सेवा करने का। शादी बहुत बड़ी बाधा बन जाएगी मेरे इस मिशन में।\"
बड़ी देर तक चुप्पी छाई रही। जहाँ ऊँटों के काफ़िले ने डेरा जमाया था, उधर तंबू के आगे आग जल रही थी। एक चहल-पहल-सी थी जो लौ की लपलपाहट में चलती-फिरती नज़र आ रही थी। पाजेब की छुनछुन, हँसी की खिलखिलाहट फिर बिरहा की थाप.....एक मनुहार.....
म्हारी लाड़ली नी कीमत कीजो, घण मान सू रखियो जी,
कुँवर सा अर्जी सुणियों जी, कुँवर सा काँची भोली जी।
मानो मारिया का बापू ही थॉमस से मनुहार कर रहा है, शायद वात्सल्य की ऐसी ही पुकार होती है लेकिन मारिया तो इस भाव से कोसों दूर चली गई है..... दूर.....एकाकी.....तपस्विनी-सी.....कल्याण को आतुर।
मारिया कोठी में पुत्री की हैसियत से रहने लगी। उसके समर्पण भाव और ग़ज़ब के बर्दाश्त ने सबका मन मोह लिया। जब दादी रात के पहर बिस्तर पर जाती तो मारिया ज़िद्द करके पैर दबाती, बालों में तेल डालती। उषा बुआ बड़ी दादी की मर्ज़ी के खिलाफ़ इंटर की परीक्षा की तैयारी कर रही थीं। भादों के लगते ही कोठी चहल-पहल से भर उठी थी। उषा बुआ की फुफेरी बहन राधो बुआ और फूफाजी आ रहे थे। फूफाजी अपनी साली को अंग्रेज़ी पढ़ाने आ रहे थे।
\"इस बार तीजों पर रौनक रहेगी, राधो और कुँवरसा के आने से।\" दादी ने अम्मा से कहा और झटपट तैयार होने की ताक़ीद की। तीजों का बाज़ार भर गया है। तमाम बेटियों के लिए ख़रीदी करनी है। सिंजारा होगा। बेटी दामाद जीमेंगे। मेहँदी, चूड़ी, टिकली, बिंदी, पायल, बिछिये, साड़ी, कपड़ों के थान.....दादी ने मारिया की पसंद के भी कपड़े ख़रीदे, नई चप्पलें ख़रीद कर दीं और सोने की चौकोर घड़ी। मारिया गद्गद हो दादी से लिपट ही तो गई। मेरी ननिहाल से अम्मा, बाबूजी, दादी, बाबा के लिए तीज की भेंट मामा लेकर आए। भैया के जन्म पर छोटे मामा आए छूछक लेकर.....अब बड़े मामा अम्मा का सिंजारा करने आए हैं। कोठी के गेट पर उनकी फिटन खड़ी है। अम्मा को और कुछ चाहिए तो बता दें, आज ही लौटना होगा।
अम्मा क्या कहतीं, मन भर आया था उनका, बस पूजा तक रुकने की ज़िद्द की जो मामा को माननी पड़ी। दादी ने गोबर से आँगन लिपवाकर बीचोंबीच मिट्टी का ढेर लगाकर उसमें नीम की डगाल रोपी। पूजा की तैयारी सभी बुआओं ने मिलकर की। सत्तू के लड्डूओं का थाल आया। बुआएँ लकदक कपड़ों में थीं। राधो बुआ ने दुल्हन जैसा सिंगार किया था। फूफा सा ने शेरवानी पर कटार लटकाई थी। सिर पर हलकी गुलाबी पगड़ी। पगड़ी में हीरे की कनी।
ऊपर छत से बाबा ने नौकर दौड़ाया, चाँद निकल आया है। सभी सुहागिनों ने चाँद को अर्घ दिया और आपस में कहानी कही। लड्डू के छोटे-छोटे टुकड़े काटे गए और नीम के पत्तों के साथ श्रद्धापूर्वक खाए गए। मैंने मुँह बनाया तो अम्मा ने घुड़क दिया। मैं घुटनों में मुँह छुपाए मन-ही-मन हँसती रही। बड़े होकर मैं तो कभी तीज का व्रत नहीं रखूँगी, कभी नीम के कड़ू पत्ते नहीं खाऊँगी।
अम्मा ने बड़े मामा के लिए पापड़ भूनकर उसका चूरा बनाकर उसमें घी-नमक डाला और घी का धुआँ दिखाकर उनकी थाली में परोसा। यह उनका प्रिय व्यंजन था। उन्होंने थाली के नीचे नए करारे नोट रखकर खाना खाया और सबसे विदा ले फिटन में जा बैठे। मैं अम्मा बाबूजी के साथ उन्हें छोड़ने गेट तक आई थी। तभी देखा फिटन के बाजू में अंग्रेज़ अफ़सर का घोड़ा खड़ा है।
बाबा छत पर थे, बातें करने की आवाज़ वहीँ से आ रही थी। दादी ने बड़े बेमन से छत पर परोसा भिजवाया लेकिन मन उनका बेचैन हो गया था। बार-बार बाबा के स्टडी रूम में जातीं। टेबिल पर फैले तमाम काग़ज़ों पर टेबिल क्लॉथ बिछा दिया उन्होंने। फिर आहट लेती रहीं। तलघर की सीढ़ियाँ गहरे अँधेरे में थीं। बाबा कोहरे जैसे धूमिल आलोक में बहुत रात तक छत पर बैठे रहे। जब घोड़े की टाप दादी ने सुन ली तब जाकर मुँह जुठारा। दादी के खाने के बाद अम्मा ने खाया।
जब दादी सोने के कमरे में आईं तो बाबा पलंग पर लेट चुके थे।
\"पूरे चार घंटे चाट गया वो फिरंगी।\"
\"मैं तो डर रही थी.....ढंग से पारायण भी नहीं किया, कान वहीँ लगे रहे।\"
\"अरे, तुम नाहक डरती हो.....हम महात्मा गाँधी के सहयोगी ज़रूर हैं पर अहिंसक नहीं.....बिना हिंसा के आज़ादी कैसे मिल सकती है? हिंसा होगी तो लहू भी बहेगा, एक-न-एक दिन हमारा भी बहेगा।\" आज़ादी की चमक उनकी आँखों में मशाल-सी जल उठी। उन्होंने अपनी मालविका को बाहों में दबोच लिया था। रेशमी गद्दे पर वे मोम-सी पिघल गईं। बाबा के क़द्दावर जिस्म में बीर बहूटी-सी गुम हो गईं। यही क़द्दावर जिस्म बाबा के इकलौते बेटे मेरे बाबूजी ने पाया था। बाबा अक़्सर कहते- \"शेरनी एक ही नर शेर जन्मती है।\"
उन्होंने अपने शेर-से पुत्र का नाम समरसिंह रखा था। बाबूजी जितने ऊँचे, तगड़े, अम्मा उतनी ही नाज़ुक, बूटे से क़द की....उजला रंग और भोला-भाला चेहरा। बाह-विवाह था उनका। बाबूजी तब बारह के थे, अम्मा दस साल की। प्रताप भवन में तब भी बाबा का ही हुक्म चलता था। अंग्रेज़ों से चिढ़ के कारण ही उन्होंने अंग्रेज़ी स्कूल में बाबूजी को नहीं पढ़ाया। बनारस में अपने दोस्त को पत्र लिखा- \"समर को भेज रहा हूँ अध्ययन के लिए। काशी हिंदू यूनिवर्सिटी में इसका दाखिला करवाने और हॉस्टल के लोकल गार्जियन बनने का ज़िम्मा तुम्हारा।\" लौटती डाक से जवाब आया-
\"समर मेरा भी पुत्र है, आप निश्चिंत रहिए।\"
पड़बाबा के नाम से प्रसिद्ध प्रताप भवन अपनी आन, बान, शान के लिए तो प्रसिद्ध था ही, पढ़ाई के लिए भी उसका ख़ासा नाम था। लड़कों की तो छोड़ो, लड़कियों तक की पढ़ाई विधिवत हुई जबकि उस ज़माने में ज़्यादातर छोटी उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी.....बहुत हुआ तो साक्षर हो गई जैसे अम्मा। लड़कों को व्यापार में लगा दिया जाता। लेकिन बाबा इन सबसे परे थे। हालाँकि पड़बाबा का सूरत में सूती कपड़ों का कारखाना था पर बाबा ने कभी रूचि नहीं दिखाई। ख़ानदान के तीनों चाचा और उनके लड़कों ने व्यापार सम्हाला और बाबा और बड़े बाबा के हिस्से का रूपया बदस्तूर आता रहा। बाबा तो पूरी तरह आज़ादी के दीवाने हो चुके थे और बड़े बाबा विरक्त।
बाबूजी कई सालों तक बनारस में पढ़ते रहे। लॉ पास किया, संस्कृत के वेदों, उपनिषदों और गीता का अध्ययन किया। गीता के श्लोक उन्हें ज़बानी याद थे। योग सीखा, संगीत, सितारवादन, चित्रकारी यहाँ तक कि मूर्तिकला भी। दादी अम्मा को बाबूजी की ग़ैरमौजूदगी में गृहस्थी के लिए पारंगत करती रहीं। चादरें, तकिए के ग़िलाफ़, परदे, कुशन कव्हर पर एम्ब्रॉइडरी करना सिखाया।
अम्मा ने दादी के पेटीकोट के लिए इतनी बारीक क्रोशिये की लेस बुनी और बाबा के लिए चिकन वर्क का कुरता बनाया कि सब देखते ही रह गए। काँच की रंगीन सलाख़ों और मोतियों से बनाए परदे बेमिसाल थे।
अध्ययन के वे वर्ष आज दिन भी बाबूजी को ज़बानी याद हैं। अक़्सर रात के भोजन के समय बनारस का क़िस्सा छिड़ जाता था। सब धीरे-धीरे उठ जाते थे पर मैं बड़े चाव से सुनती रहती थी। अम्मा भी बैठी रहतीं।
तपोभूमि है बनारस। बाबूजी प्रतिदिन संध्या होते ही दशाश्वमेध घाट चले जाते और चबूतरे पर बैठकर योगासन लगाते। उनके एक साथी ने योगासन में इतनी सिद्धि प्राप्त कर ली थी कि ज़मीन से एक फुट ऊपर पद्मासन की मुद्रा में उठ जाते थे। इलाक़े के अंग्रेज़ यह करिश्मा देखने आए थे। अंग्रेज़ कलेक्टर ने तो स्केल पद्मासन के नीचे घुमाकर देखी थी और ताज्जुब से उसकी आँखें फटी की फटी रह गई थीं। उस ज़माने में पंडित मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के कुलपति थे। छात्रावास के विद्यार्थियों को अपने बच्चों की तरह मानते थे।
उनके खाने-पीने, दूध, मेवे का पूरा इंतज़ाम उनकी देखरेख में होता था। बाबूजी ने सभी वेदों का अध्ययन वहीँ रहकर किया। केवल अथर्ववेद के कुछ मंडल के श्लोक वे नहीं समझ पाए थे। लिहाज़ा गुरु तलाशा गया। किसी ने बताया बंगाली टोले में एक पंडित यह सिखा सकते हैं। बाबूजी गए। पीपल के दरख़्तों से घिरा एक खंडहरनुमा घर। मुख्य दरवाज़ों पर टूटे-फूटे-से लकड़ी के किवाड़ लोहे की ज़ंग लगी साँकल.....अंदर भुतहा कमरा.....दीवार में आला और आले में जलता हुआ मिट्टी का दीपक।
पंडितजी की शर्त थी कि अँधेरा होने पर ही वे पढ़ाएँगे। इसके लिए छात्रावास से विशेष अनुमति लेनी पड़ी थी। पंडितजी आसन पर विराजमान हो लगातार तीन महीनों तक बाबूजी को पढ़ाते रहे। जब सभी श्लोक स्पष्ट हो गए तो दूसरे दिन बाबूजी ने गुरुदक्षिणा के नाम पर एक कीमती शॉल ख़रीदा और जब वे उसे देने पंडितजी के घर गए तो वहाँ दूर-दूर तक भुतहा सन्नाटा पसरा था।
जहाँ बैठकर वे पढ़ाते थे वहाँ तमाम कबूतरों की बीट बिखरी थी। आले का दिया तेल के बिना सूखा और जल-जल कर काला हो चुका था। बाहर पीपल के दरख़्तों से होकर जब हवाएँ चलतीं तो पत्तों से भरी डालियाँ साँय-साँय का ख़ौफ़नाक मंजर पेश करतीं। तभी साइकिल पर दूध के डब्बे लटकाए एक दूध वाला वहाँ से गुज़रा। बाबूजी ने उसे रोककर पूछा- भैया, बाबा मिश्रीनाथ दत्त कहीं चले गए क्या? मुझे आज ही उनसे मिलना था, सुबह की गाड़ी से घर लौटना है।
दूध वाले का मुँह खुला का खुला रह गया- \"बाबा मिश्रीनाथ!! अरे भैया.....उनको गुज़रे तो सालों हो गए। अब यहाँ कोई नहीं रहता। कोई इस खंडहर को ख़रीदता भी नहीं.....सुना है इधर भूतों का साया है।\"
\"भूतों का? तो क्या वे बाबा मिश्रीनाथ के भूत से पढ़ते रहे? तीन मास तक?\"
और बाबूजी बेहोश हो गए थे।
होश आया तो वे अस्पताल में थे। सामने छात्रावास के विद्यार्थी, गुरु और बाबा..... बाबा ख़बर मिलते ही बनारस आ गए थे। बाबूजी को डिस्चार्ज कराके बाबा तुलसी घाट ले गए जहाँ
संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तजो शरीर।
जहाँ चरण पादुका और स्मारक चिह्न बने हैं वहाँ बैठकर बड़ी देर तक बाबा बाबूजी से बातें करते रहे। बाबूजी के दिमाग़ में बस एक बात थी.....बाबा मिश्रीनाथ क्या भूत बन गए, ब्रह्मराक्षस बन गए। हाँ, जिस विद्वान की विद्या की पिपासा अधूरी रह जाती है वह मरकर ब्रह्मराक्षस ही होता है ऐसा दादी बताती हैं.....वे सिहर गए थे, उन्हें बंगाली टोले का वह पीपल का हरहराता दरख़्त याद आया जिसके साए में वह खंडहरनुमा मकान था।
सामने गंगा की लहरों पर एक बजरा तैर रहा था। डूबते सूरज की सुनहली किरणें गंगा को पारदर्शी बना रही थीं.....तट के उस पार रेतीला विस्तार और उस पर चलते इक्का-दुक्का लोगों के काले साए.....अचानक बजरा किनारे पर आकर रुका। बाबा तेज़ी से सीढ़ियाँ उतरकर बजरे पर चढ़ गए। बाबूजी को भी चढ़ने का इशारा किया। तब तक अँधेरा हो चला था। दूर हरिश्चंद्र घाट पर चिताओं की लपटें स्पष्ट हो चली थीं। उनके बैठते ही बजरा चल पड़ा। अचानक बाबूजी दंग रह गए। बजरे पर तीसरा व्यक्ति सफ़ेद दाढ़ी, मूँछ और जटाओं में अपनी स्पष्ट पहचान बता रहा था- \"गुरूजी आप?\"
\"चकमा खा गए न? इसीलिए यह वेश रखा है।\" बाबा मिश्रीनाथ ने मुस्कुराते हुए कहा।
बाबूजी ने उनका चरणस्पर्श किया।
\"तुमने इसे कुछ बताया नहीं अभय?\"
\"नहीं मिश्री.....लेकिन अब समय आ गया है। सुनो समर.....मिश्री और मैं क्रांतिकारी दल के सदस्य हैं। अंतर यह है कि मिश्री अंग्रेज़ों का दुश्मन बन गया है। इसने कमिश्नर की अदालत में बम फोड़ा था। कम-से-कम दस अंग्रेज़ों का सफ़ाया हो गया तभी से ये वेश बदलकर घूमता है। सबने मान लिया है कि बम विस्फोट में यह भी मारा गया। तुम सोच रहे होगे समर कि मैं क्रांतिकारी दल का हूँ फिर अपने घर अंग्रेज़ क्यों आते हैं? इसलिए कि मैं उनका दोस्त बनकर उनके राज़ पता कर रहा हूँ.....\"
बाबूजी अवाक़ सुनते रहे.....जाने क्या सोचकर बोले- \"मैं भी क्रांतिदल में शामिल होना चाहता हूँ।\"
बाबा और मिश्रीनाथ एक साथ चौंके। बाबा मिश्रीनाथ ने बाबूजी का हाथ पकड़ लिया- \"नहीं समर, फिर प्रताप भवन की देखभाल कौन करेगा। तुम इकलौते बेटे हो अभय के। अपने ताऊ और ताई की हालत देख ही रहे हो। तुम्हारे सभी चाचाओं ने व्यापार सम्हाला है, प्रताप भवन तुम्हें सम्हालना है। हम लोगों का कोई भरोसा नहीं.....कब मौत आ जाए।\"
अचानक बाबूजी रो पड़े थे.....बजरा गंगा की लहरों पर डोलता रहा। अँधेरा खूब गाढ़ा होने पर बजरा दशाश्वमेध घाट पर आकर रुका। रास्ते में चलते हुए एक सुनसान जगह पर बाबा मिश्रीनाथ ने विदा ली और झाड़ियों में खो गए।
सुबहे बनारस। धीरे-धीरे अंगड़ाई लेती हुई, फूल की पंखुड़ी-सी खिलती वाराणसी जहाँ वरणा और गंगा का मिलन होता है और जहाँ के पंचगंगा घाट में यमुना, सरस्वती, किरणा और धूपताया नदियाँ गुप्त रूप से मिलती हैं।
अंग्रेज़ ऑफिसर्स ढूँढ-ढूँढ कर हार गए थे कि चारों नदियों की जलधारा आख़िर आती कहाँ से हैं परंतु जिस तरह यहाँ के संस्कृत विद्यालयों से निकले हज़ारों स्नातक एकता, बंधुत्व और \'वसुधैव कुटुम्बकम्\' की ज्योति पूरे विश्व में फैला रहे हैं उसी तरह ये नदियाँ वसुधैव कुटुम्बकम् की कल-कल जलधारा को अलग कैसे दरशा सकती हैं। अलग नहीं है भारत। मुस्लिम शासकों की अकर्मण्यता और विलासिता के कारण भले ही अंग्रेज़ों ने चालाकी से अपने पैर जमा लिये हैं यहाँ, पर कितने दिन? बाबा का मालवगढ़, मिश्रीनाथ का बनारस अब जाग उठा है। क्रांति की बारूद तैयार है, चिनगारी भर की देर है।
मंदिर की मूर्ति के पिछवाड़े चौकोर पत्थर सरकाकर पाताल में उतरती सीढ़ियों की अंधी खोह में बाबूजी बाबा के साथ गए थे। तड़के सुबह.....जब सुबहे बनारस की निर्मल ताज़गी फोटो के निगेटिव की तरह धुंधली थी और जब मणिकर्णिका कुंड से लगी गंगा तट तक जाती सीढ़ियों की लंबी कतार निपट सुनसान थी.....पाताल में पैर जमे तो अंधी खोह में दीया टिमटिमाया.....धीरे-धीरे तलघर स्पष्ट होने लगा। हथियार, बम, हथगोले, बारूद, नक़्शे.....मानो रणभूमि हो बाबा मिश्रीनाथ दीये की लौ तेज़ कर रहे थे। इस बार वे मारवाड़ी वेशभूषा में थे। गादी पर बैठने वाले सेठ की तरह।
\"इंतज़ाम पूरा है.....आज तुम मलावगढ़ लौट रहे हो अभय। तारीखें वही रहेंगी.....\"
उन्होंने बाबूजी को आँखें फाड़-फाड़कर सारा मंजर देखते पा अपने नज़दीक बुलाया, ज़मीन पर बैठने का संकेत किया।
\"आज तुमसे भी अंतिम मिलन है समर.....तुम्हारी पढ़ाई भी समाप्त हो चुकी है और तुम मालवगढ़ लौट रहे हो अपने पिता का कारोबार सम्हालने। लेकिन क्रांतिकारी नहीं बनना है तुम्हें.....वचन दो।\"
उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। बाबूजी झिझके, बाबा की ओर देखा.....वहाँ अनेक ज्वालाएँ एक-दूसरे में समाहित हो दावानल बन रही थीं।
\"वचन दो समर।\"
बाबा मिश्रीनाथ ने पुनः कहा और बाबा की ओर संशय से देखा.....कुछ पल सन्नाटा रहा, अब की बाबा ने सख़्ती से पूछा- \"क्या सोच रहे हो समर?\" बाबूजी ने वेग से उठती रुलाई को अंदर ही अंदर ज़ब्त कर बाबा की गोद में अपना शीश नवा दिया- \"वचन देता हूँ मैं.....मेरा रणक्षेत्र घर होगा.....कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारियाँ होंगी।\"
दोनों ने बारी-बारी से बाबूजी को गले लगाया। बाबा मिश्रीनाथ ने झोले में से जलेबियों का दोना निकाला- \"हमारे भविष्य की कामयाबी की कामना सहित।\"
तीनों ने एक-एक जलेबी दोने में से उठाई। जलेबियाँ हलकी-हलकी गरम थीं।
\"इतनी सुबह जलेबियाँ कहाँ मिल गईं तुम्हें?\"
\"लल्लू ने रात तीन बजे बनाकर दीं। लालूराम क्रांतिकारी।\"
\"अब उसकी दुकान कौन सम्हालेगा? कल से तो तुम्हारे दल अपनी मुहिम पर रवाना हो रहा है।\"
\"उसका बेटा छेदीराम। अभय, लालू ने दूध भी औंटाया है और कचौरियाँ भी बनाई हैं ख़ास तुम दोनों के लिए। वहीँ बैठकर नाश्ता करेंगे।\"
तीनों अंधी खोह से मंदिर की ओर निकलती गुप्त सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आए। चौकोर पत्थर के पास पुजारी खड़ा था और बाबूजी ने आश्चर्य से देखा कि उसने प्रणाम करने की जगह सेल्यूट मारा और वंदेमातरम् कहा।
लालूराम ने अपने हाथों बाबा, बाबूजी और मिश्रीनाथ के लिए जलेबियों, कचौरियों से प्लेट सजाकर दी। दोने में चटनी....मिट्टी के कुल्हड़ में औंटाया हुआ मलाई डला दूध। बाबूजी न उस सुबह को आज तक भूले हैं, न नाश्ते और दूध के स्वाद को और न लालूराम, पुजारी और बाबा मिश्रीनाथ को।
उषा बुआ ने प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया और जब बी.ए.का फॉर्म भरना चाहा तो बड़ी दादी का ब्लड प्रैशर बढ़ गया। बिस्तर पर पड़े-पड़े वे बड़े बाबा पर चीखने लगीं जो गलियारे में तख़त पर ध्यानमग्न बैठे थे- \"अरे, साधू-संन्यासी होने से गिरस्ती नहीं चलती। छोरी बूढ़ी हो जाएगी तब चेतोगे?\"
बड़े बाबा का ध्यान तब भी नहीं टूटा तो बड़ी दादी ज़ोर-ज़ोर से हाँफने लगीं, हाथ-पैर पटकने लगीं, सारा शरीर ठंडे पसीने से नहा उठा। मारिया ने दौड़कर उन्हें सम्हाला..... इंजेक्शन दिया। दादी भी उनके पायताने बैठकर उनके तलुए सहलाती हुई ढाँढस देने लगीं- \"जीजी, चिंता से बीमारी और बढ़ेगी.....उषा की शादी इस साल ज़रूर हो जाएगी।\"
और दादी का कहा सच हो गया। जोधपुर में रियासती घराने में उनकी शादी तय हो गई। उनके ख़ानदान को महाराजाओं के समय सोने का कड़ा मिला था और जिस ख़ानदान को सोने का कड़ा मिल जाता उसके ठाठ का तो कहना ही क्या। ख़ानदानी महिलाएँ पैरों में सोने के बिछुए, पायल पहन सकती हैं.....उषा बुआ भी पहनेंगी। मेरे मन में सवाल उठा था कि हम लोग क्यों नहीं पैर में सोना पहन सकते पर यह उसी तरह तर्क देकर टाला गया था जिस तरह मंदिर में जूते पहनकर प्रवेश। मेरे कुछ सवाल मेरे ज़ेहन में आज तक टँगे के टँगे हैं जो हवा में हिलती तोरन की तरह कभी-कभी मेरे अंदर खलबली मचा देते हैं। किंतु जवाब नहीं मिलता जैसे यह सवाल कि कोठी को हर आफ़त-मुसीबत के लिए दादी ही क्यों पहल करतीं, मन्नतें माँगतीं, और कोई क्यों नहीं?
दादी ने उषा बुआ की शादी के लिए यज्ञ कराने का संकल्प लिया था। उषा बुआ की सगाई की रस्म होते ही उन्होंने यज्ञ की घोषणा कर दी थी। शादी का मुहूर्त सवा महीने बाद का था तब तक यज्ञ निपट जाएगा। दादी का तर्क था कि शादी निपट जाने दो लेकिन दादी की मन्नत शादी पक्की होने की ही थी। लिहाज़ा कोठी में यज्ञ और शादी दोनों की तैयारियाँ शुरू हो गईं। पंडितजी बुलाए गए।
दादी ने चाँदी मढ़ी चौकी पर उन्हें बिठलाकर विधि विधान पूछे। पंडितजी ने भी यही कहा कि शादी निपट जाए, उसके पाँचवे दिन यज्ञ कराइए। कोई भी संकल्प कार्य संपन्न हुए बिना कैसे पूरा माना जाए? दादी नतमस्तक थीं, तर्क नहीं किया।
\"पंडितजी, क्या-क्या तैयारी करनी होगी बता दें। शादी तेईस तारीख़ की है, अट्ठाईस को पूर्णमासी के दिन यज्ञ करा लेते हैं।\"
महाराजिन पंडितजी के लिए चाँदी की तश्तरी में सूखे मेवे, काजू और पिश्ते की बर्फ़ी और चाँदी के गिलास में केशर मसाले वाला दूध रख गईं। पंडितजी ने बिना किसी तक़ल्लुफ़ के फ़ौरन ही नाश्ता करना शुरू कर दिया। दूध पीकर डकार ली और अँगोछे से मुँह पोंछते हुए बोले- \"सोने के लक्ष्मी-विष्णु बनवा लीजिये। रेशमी कपड़े बनेंगे उनके, गोटा किनारी लगेगी। छत्र बनेगा। चाँदी का पान, नारियल, सुपारी.....पंडितजी के जोड़े से कपड़े बनेंगे। यज्ञ पाँच दिन का होगा। आप पाँचवे दिन सबको भोजन करा सकती हैं।\"
कहकर पंडितजी पोथी पत्रा समेट चल दिए। मैं रजनी बुआ के कान में फुसफुसाई- \"ढोंगी बाबा गए।\"
\"ढोंगी क्यों?\"
\"यज्ञ में अपने कपड़ों की फ़रमाइश जो कर रहे थे।\"
जाड़ों के शुरूआती दिन। कोठी के आगे सड़क के उस पार नीम, कचनार के पेड़ों के साए में ऊँटों का काफ़िला ठहरा हुआ था। कपड़े के टेंट लगे थे.....इक्का-दुक्का। दादी ने घर में दर्ज़ी बैठा लिया था। सुबह निराहार रहकर पवित्र वातावरण में भगवान के कपड़े सिए जाते और दोपहर को शादी के लिए कपड़ों की सिलाई होती। हुक टाँकने, गोटा, किरन टाँकने और तुरपन करने के लिए दर्ज़ी अपनी दो लड़कियों को भी लाता था। दादी तीनों के लिए खाना बनवातीं....शाम को चाय नाश्ता कराकर ही उन्हें भेजतीं। पूरे दस दिन लगे कपड़े सिलाने में।
भगवान के कपड़े क्या शानदार बने थे। पीले रेशम पर चाँदी का गोटा, मोती, लाल पायपिंग। लक्ष्मीजी का दुपट्टा बहुत कीमती था। उसमें सोने के तार से कढ़ाई की गई थी। विष्णुजी की पगड़ी भी बड़ी प्यारी बनी थी। उषा बुआ के ब्लाउज़, पेटीकोट साड़ियों के संग तहकर रख दिए गए। उषा बुआ का लहँगा चोली और ओढ़नी भी बेहद कीमती बने थे। सोने-चाँदी और सच्चे मोतियों से उन पर बेल-बूटे काढ़े गए थे।
उषा बुआ की शादी के निमंत्रण कार्ड का डिज़ाइन मैंने तैयार किया था। रंगों का चुनाव भी असाधारण था और जब निमंत्रण पत्र की इबारत में दर्शनाभिलाषी और विनीत के नामों के बाद बीच की जगह में लाल सुनहरे अक्षरों में मैंने लिखा- \'बुआ के ब्याह में नन्हा वीरेंद्र बाट जोहे\' तो सभी चकित रह गए। बड़ी दादी बोलीं- \"होशियारी की गठरी है इसके दिमाग़ में, चाहे जब खोल लेती है।\"
दादी हँस दी, उन्हें तो दम मारने की फुरसत नहीं थी। राधो बुआ भी आ गई थीं। धीरे-धीरे मेहमान आने शुरू हो गए थे। उनके आने से काम में हाथ बँटाना तो ख़ैर मामूली-सा हुआ अलबत्ता उन्हीं के काम अधिक बढ़ गए। बड़ी दादी छड़ी के सहारे थोड़ा बहुत चल लेती थीं। शादी की तैयारियों में मीन-मेख निकालकर वे पैर दर्द से परेशान हो फिर बिस्तर पर ढह जातीं।
उनके बाल मात्र उँगली बराबर मोटी और लंबी चुटिया में सिमट आए थे। माँग के पास चाँद चमक रही थी। बड़ी दादी की ऐसी दुर्दशा में उनका अपना भी हाथ था। हमेशा आराम, दूसरों की बुराई और चिड़चिड़े स्वभाव के कारण ही बड़े बाबा उनसे विरक्त हो गए थे। नहीं तो बड़े बाबा जैसा सीधा सादा, इंसानियत से ओतप्रोत इंसान मिलना कठिन है।
पूरे मालवगढ़ में ख़बर फैल गई थी कि उषा बुआ की ससुराल रजवाड़ों से ताल्लुक रखती है। पैरों में सोना पहनती है। बारात देखने पूरा नगर उमड़ पड़ा था। क्या शानदार बारात थी उषा बुआ की। घोड़े, ऊँट कारें.....कोसों सड़क बारातियों से घिर गई थी। बाबा का इंतज़ाम भी क्या खूब था। मजाल है कि किसी की शान में गुस्ताख़ी हो जाए। स्वागत सत्कार, फूल माला, इत्र फुलेल से पाट दिया था सबको।
घोड़े से उतरते ही दूल्हे राजा के पैर लाल कालीन में धँसे पड़ रहे थे। कालीन पर फूल लिए स्त्रियाँ खड़ी थीं जो दूल्हे राजा पर फूल बरसा रही थीं। कोठी की भीतरी व्यवस्था अम्मा और दादी के ज़िम्मे। हॉल में ढोलक, मजीरे की धुन पर औरतों के द्वारा गाए गीतों की मधुर स्वर लहरी जादुई समा बाँध रही थी। आज मैंने भी लहँगा, चुनरी पहनी थी। बालों की चोटी गूँथकर उसमें मोगरे की माला पिरोई थी और मोतियों के गहने पहने थे। रजनी बुआ ने कुंदन के गहने पहने थे। संध्या बुआ कुछ उदास-सी दिख रही थी। राधो बुआ ने चुटकी ली- \"क्या बात है संध्या.....शादी का मन हो आया क्या?\"
संध्या बुआ शरमा गईं।
\"कहो तो दूल्हे राजा के छोटे भैया से छेड़ें बात?\"
\"जीजी\" संध्या बुआ ने आँखें तरेरकर राधो बुआ को देखा फिर दोनों खिलखिला पड़ीं। एक साथ कई कलियाँ बाहर बगीचे में खिल गईं। चाँद पूरणमासी का नहीं था फिर भी निरभ्र आकाश में निर्मल कांति बिखेर रहा था। हॉल में ट्रे में चाँदी के वर्क लगी गिलोरियाँ भेजी जा रही थीं। गानेवालियों के लिए चाय प्यालों में। राधो बुआ ने एक गिलोरी उठाकर संध्या बुआ के मुँह में ठूँस दी- \"उदास साली नए जीजाजी की अगवानी कैसे करेगी?\"
\"क्या राधो जीजी आप भी?\"
संध्या बुआ खुश दिखने के प्रयत्न में भी उदासी छिपा नहीं पा रही थीं। रजनी बुआ मुझे ऊपर की मंजिल में झरोखे के पास ले गईं। जहाँ उषा बुआ की सहेलियाँ उन्हें चुपके-चुपके दूल्हे राजा के दर्शन करा रही थीं। उत्तर दिशा का कोना सूना था। वहीँ रजनी बुआ धीमी आवाज़ में बताने लगीं-
\"संध्या जीजी का इश्क़ चल रहा है, उन्हीं के साथ पढ़ता है वह.....अजय नाम है उसका।\"
मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ...आज तक प्रताप भवन में इश्क़ शब्द का पदार्पण नहीं हुआ था। हमें जन्म घुट्टी में यह बात पिला दी जाती थी कि हम लड़कियाँ हैं जो मर्दों के साए के बिना साँस नहीं ले सकतीं। हमारा सबकुछ हमारा शौहर है.....इज्ज़त और सलामती से इस घर से बिदा ले हमें अपने-अपने घर जाना है और अपनी दुनिया बसानी है, जैसे उषा बुआ जा रही हैं। फिर संध्या बुआ ये क्या कर बैठीं? साफ़ दिखाई दे रहा है कि यह सरासर मुसीबतों और पीड़ाओं को न्योता देना था।
नीचे शहनाइयाँ बज रही थीं। उषा बुआ कितनी सुंदर लग रही थीं। दुल्हन के वेश में साक्षात् लक्ष्मी जैसी। सोने, हीरे, मोती से लकदक। सारा प्रताप भवन रोशनी, फूलों की खुशबू, कहकहे और अफ़रा तफ़री में डूबा था। जो जहाँ जिसे मिलता हँसी कहकहे में छेड़ने लगता..... उदास थे तो हम दोनों, हमउम्र, हममिजाज, सखियों जैसे मैं और रजनी बुआ।
हॉल से उठकर गानेवालियाँ शादी के मंडप तक पहुँच गईं- \'लाड़ल सासरिया न जासी, पीहर सूनो सो कर जासी.....म्हारी उषा राज दुलारी.....\'
पीहर सूना.....प्रताप भवन सूना.....कमरे, गलियारे, आँगन, चबूतरा.....उषा बुआ जब तक यहाँ रहीं गंभीरता और ख़ामोशी ही तो ओढ़े रहती थीं फिर उनके जाते ही सब कुछ सूना क्यों रहने लगा? क्यों उनकी पहचल सुनने को कान सजग रहने लगे? जग की यह कैसी रीत है.....इंसान की ग़ैरमौजूदगी ही उसकी मौजूदगी के लिए तड़पती है। उनकी बिदाई की रात कोई नहीं सोया।
दूसरे दिन से मेहमान बिदा होने लगे। केवल यज्ञ में शामिल होने वाले लोग ही बच गए। दादी तो मशीन बन चुकी थीं। उनका थका हुआ सौंदर्य उनके मन की दृढ़ता को स्पष्ट कर रहा था।
मारिया ने यज्ञ का पूरा विधान समझ लिया था और जब पाँच दिन के प्रसाद की योजना बाबा, दादी बना रह